● छुट-पुट धमकियाँ और मार-पीट -2

## 1982 में गेडोर हैण्ड टूल्स फैक्ट्री में यूनियन का चुनाव करवाने के लिये बस्ती-बस्ती जा कर साथियों ने हस्ताक्षर करवाये। तीनों प्लान्टों के डेढ हजार के करीब मजदूरों के दस्तखत ले कर लन्च ब्रेक में फस्ट प्लान्ट के भूपेन्द्र यूनियन ऑफिस में प्रेसिडेंट को देने गये थे। वहाँ बैठे यूनियन पदाधिकारी बोले थे : “कम्युनिस्ट देशों में कहीं चुनाव होते हैं क्या?” मजदूरों के हस्ताक्षर वाले कागज फाड़ दिये थे। और, भूपेन्द्र के पेट में घूँसे मारे थे। फिर, फस्ट प्लान्ट के एक लम्बे-तगड़े वरकर द्वारा कम कद-काठी के भूपेन्द्र के खिलाफ शिकायत, “भूपेन्द्र ने फैक्ट्री में उससे जबरन दस्तखत करवाये” को आधार बना कर मैनेजमेन्ट ने भूपेन्द्र को सस्पेंड कर दिया था।

गढवाल में एक गाँव में जन्मे भूपेन्द्र ने एम.ए. तक पढाई की थी। नौकरी नहीं लगी। बारहवीं पास बता कर 1978 में गेडोर फैक्ट्री में हैल्पर लगे थे।

## आन्तरिक आपातकाल में सरकार ने फरीदाबाद में बड़े पैमाने पर झुग्गियाँ तोड़ी थी। पहले फैक्ट्री से कुछ दूरी पर रहते गेडोर फैक्ट्री के वरकर चिन्तामणि तब से आठ किलोमीटर दूर से ड्युटी के लिये आने-जाने लगे थे। आठ-आठ घण्टे की तीन शिफ्टों में उत्पादन होता था। 1982 में नौकरी छोड़ो वाली बात पर फैक्ट्री में यूनियन लीडरों का विरोध बढने का समय। चिन्तामणि बी-शिफ्ट से छूटने पर रात बारह बजे बाद मथुरा रोड़ पर साइकिल से घर जा रहे थे। अचानक मोटरसाइकिल पर दो लोग चिन्तामणि जी पर हाकियों से हमला कर चले गये थे।

पूर्वी उत्तर प्रदेश के सुलतानपुर जिले में एक गाँव में जन्मे चिन्तामणि की हाई स्कूल पास करने के बाद सरकारी नौकरी लग गई थी। जाति के आधार पर अपमान करने वाले की पिटाई कर चिन्तामणि जी सरकारी नौकरी छोड़ कर फरीदाबाद पहुँचे थे। यहाँ कई फैक्ट्रियों में नौकरी करने के बाद वे गेडोर फैक्ट्री में 1972 में लगे थे।

## गेडोर मजदूरों में यूनियन लीडरों के प्रति बढते विरोध के दौरान विजय शंकर ने एक साँय मुजेसर रेलवे फाटक पार ही किया था कि घात लगाये दस-बारह लोग उन्हें पीट कर गेडोर फैक्ट्रियों की तरफ चले गये थे।

सरकार द्वारा 1977 में आन्तरिक आपातकाल हटाये जाने के बाद फरीदाबाद में हड़तालों की बाढ-सी आई थी। कुछ ठहराव-सा 1979 में केन्द्रिय रिजर्व पुलिस बल (सी आर पी) द्वारा की गोलीबारी में कई मजदूरों के मारे जाने पर आया था।

हड़तालों की उस लहर में मथुरा रोड़ पर स्थित दिल्ली फरीदाबाद टैक्सटाइल फैक्ट्री में हड़ताल का नेतृत्व विजय शंकर ने किया था। नौकरी से निकाले गये थे।

विजय शंकर बातों को जोड़ कर रखने में बहुत कुशल थे। प्रखर वक्ता थे। हिन्दी में पढते बहुत थे। वे उस माओवादी समूह से जुड़े जिसमें मैं भी था। विजय शंकर ने मुजेसर फाटक पर पान का खोखा लगाया और उसे राजनीति का अड्डा बनाया था। कई फैक्ट्रियों के मजदूर बगल की झुग्गियों में विजय शंकर के इर्द-गिर्द मार्क्स, लेनिन की पुस्तकों के अध्ययन में शामिल होते थे। बाहर से आने वाले ग्रुप के लीडर गोपनीयता बरतते थे और विजय शंकर के माध्यम से आयोजित बैठकों में मजदूरों से बात करते थे।

विजय शंकर से मेरा मिलना जनवरी 1982 में हुआ था। ग्रुप लीडरों ने उन्हें मना किया परन्तु विजय शंकर ने मिलना जारी रखा। ग्रुप ने उन्हें अलग कर दिया और विजय शंकर खुल कर मजदूर समाचार से जुड़ गये थे। कुछ समय बाद उन्होंने पान का खोखा छोड़ दिया था और पूरा समय मजदूर समाचार में लगाने लगे थे।

## बात बाटा फैक्ट्री की। अखिल भारतीय एटक सम्मेलन में पारित प्रस्ताव : “टेम्परेरी वरकरों को परमानेन्ट मजदूर बनवाने के लिये संघर्ष करो” का हवाला दे कर यूनियन ने 1983 में वर्षों से टेम्परेरी 300 वरकरों को फैक्ट्री गेट पर बैठा दिया। यूनियन ने तम्बू लगवाया और प्रतिदिन लीडरों के भाषण। तीन महीने बाद अचानक एक दिन सुबह शिफ्ट आरम्भ होने से पहले परमानेन्ट मजदूरों को भाषण देते हुये बाटा यूनियन महासचिव ने कहा था कि धरने से यूनियन का कोई लेना-देना नहीं है। अगले रोज बाटा फैक्ट्री में लन्च ब्रेक से कुछ पहले गेट के बाहर यूनियन के सूचना पट पर हमने हाथ से लिखा पर्चा चिपकाया और हरि लाल तथा मैं वहाँ बगल में खड़े हो गये थे। लन्च का हूटर बजते ही अन्य दिनों की तरह बाटा मजदूरों की भीड़ दौड़ती हुई गेट से निकली। कुछ ही मजदूरों ने पर्चा पढा था कि उसे नोच लिया गया। “हमारे बोर्ड पर पर्चा क्यों चिपकाया?” “मजदूरों का बोर्ड है।” कुछ लोग हमें धक्के मारने लगे और कुछ लोग हमें बचाने लगे। खींचा-खींची में बाटा गेट से बाटा चौक पर पहुँच गये थे।

पर्चा पढा नहीं जा सका था इसलिये 100 प्रति छपवा कर अगले दिन सुबह सात बजे से हरि लाल और मैंने बाटा गेट के दो तरफ बाँटा था। और, बाटा मैनेजमेन्ट ने लकड़ी का वह सूचना पट हटा कर लोहे के फ्रेम वाला नोटिस बोर्ड बनाया था। नये सूचना पट पर एक तरफ बाटा यूनियन लिखा था, दूसरी तरफ बाटा कम्पनी लिखा था और सुरक्षा के लिये स्टील के महीन तारों की जाली तथा ताला लगाया था।

## नीलम पुल की बगल में एस्कॉर्ट्स यूनियन का कार्यालय है और उसी में एच.एम.एस का जिला कार्यालय भी है। आन्तरिक आपातकाल में जेल में रहे श्री दलीप सिंह एडवोकेट, एच.एम.एस. जिला प्रधान के तौर पर वहाँ बैठते थे। एच.एम.एस. का पदाधिकारी बनने पर सतीश कुमार भी वहाँ बैठते थे। सी.पी.आई.(एम)-सीटू में सक्रिय सतीश कुमार गुडईयर टायर फैक्ट्री में यूनियन के प्रेसिडेंट भी रहे थे। आपातकाल हटते ही बहुत तेज हुई मजदूरों की हलचलों के दौरान बनाई गई मजदूर संघर्ष समिति में केन्द्रीय यूनियनों से नाते तोड़ कर शामिल होने वाली अस्सी यूनियनों के नेताओं में सतीश कुमार भी थे। 1979 में पुलिस फायरिंग के बाद मजदूर संघर्ष समिति गायब हो गई थी। गुडईयर टायर फैक्ट्री में नौकरी से निकाले जाने के बाद सतीश कुमार एच.एम.एस. पदाधिकारी बने थे।

1983 में जब-तब दलीप जी और सतीश जी से मिलने जाते थे। संयोग से एक बार इंग्लैण्ड में ट्राट्स्किवादियों की मिलिटेन्ट टेन्डेन्सी के एक नेता, उनका नाम शायद सिलवरमैन था, वहाँ मिले थे। मजदूर समाचार के बारे में जान कर वो बहुत प्रसन्न हुये और फिर मिलने का समय तय किया।

बलविन्द्र और मैं समय पर पहुँच गये। “मीटिंग में व्यस्त” की बात का अर्थ हम नादानों को समझ में नहीं आया था। हम इन्तजार में बैठे ही रहे। अन्ततः ट्राट्स्किवादियों की मिलिटेन्ट टैन्डेन्सी के नेता एस्कॉर्ट्स यूनियन नेताओं के संग हमारे पास आ कर बैठे और “मीटिंग में व्यस्त” का अर्थ हमें समझ में आया।

एस्कॉर्ट्स यूनियन प्रेसिडेंट श्री सुभाष सेठी कर्ताधर्ता थे। एच.एम.एस. उन पर निर्भर थी। मिलिटेन्ट नेता उन पर निर्भर थे। जबकि मजदूर समाचार में उनकी गतिविधियों की तीखी आलोचना होती थी। लगता है कि एस्कॉर्ट्स नेता ने हमारे बारे में मिलिटेन्ट नेता को बताया था और इस ने गुड़-गोबर किया था। हमें बुलाया था इसलिये पहले टालने के प्रयास किये गये। असफल। आड़ू से पाला पड़ा था। अन्ततः अन्तर्राष्ट्रीय नेता अपने “तेज” से हमें ध्वस्त करने…

बातचीत शुरू हुई। मिलिटेन्ट नेता ने एस्कॉर्ट्स नेता की हमारे द्वारा आलोचना की आलोचना की। हम ने तथ्यों को रखा। हमारे द्वारा यह बताने पर कि एक फैक्ट्री में मजदूरों और मैनेजमेन्ट के बीच विवाद में जिला पुलिस प्रमुख को पंच बनाया है…. मिलिटेन्ट नेता हम पर पिल पड़े थे : “क्या गलत है इसमें? फरीदाबाद में अस्सी यूनियनें चलाते हैं! मजदूर तुम्हें पीटेंगे….”

1983 में दिल्ली विश्वविद्यालय में माओवाद समर्थक बुद्धिजीवियों और संस्कृति कर्मियों के कार्यक्रम में मजदूर समाचार ले कर गया था। एक अधेड़ गम्भीर मुद्रा में मिले। धमकाने के लहजे में बोले थे :”एस्कॉर्ट्स यूनियन की आलोचना बन्द करो।” उनका नाम याद नहीं है।

बलविन्द्र दिल्ली में अपने पिताजी से विद्रोह कर कानपुर चले गये थे। केश कटवाये। कानपुर में विश्व-भर के वामपंथी साहित्य के केन्द्र, करन्ट बुक डिपो पर जाते थे। उस माओवादी ग्रुप के सम्पर्क में आये जिसमें मैं भी था। फरीदाबाद आ गये और ओरियन्ट स्टील फैक्ट्री में सुपरवाइजर लगे। एक बार मध्य प्रदेश से दिल्ली में ग्रुप लीडर से मिलने आया तब बलविन्द्र के सीही गाँव में कमरे पर रुका था। 1982 में बलविन्द्र मजदूर समाचार के अतिसक्रिय लोगों में थे। कानपुर गये तब करन्ट बुक डिपो से इन्टरनेशनल कम्युनिस्ट करन्ट (आई सी सी) संगठन का साहित्य भी लाये थे।

## आई.डी.बी.आई. से ढाई करोड़ रुपये का ऋण ले कर गेडोर फैक्ट्री में इलेक्ट्रोप्लेटिंग विभाग में ऑटोमेशन पूरा हो गया था। मजदूरों के विरोध ने बड़े पैमाने पर मजदूरों की छँटनी करने की कम्पनी योजना को अटका दिया था।

नई योजना बनी। मैनेजमेन्ट ने तनखा में देरी करनी आरम्भ की और सीटू ने लड़ाकू यूनियन का लिबास पहना। 1983 में यूनियन ने तीनों प्लान्टों में टूल डाउन स्ट्राइक की घोषणा की। शिफ्टों में वरकर ड्युटी जाते और आठ घण्टे फैक्ट्री में बैठ कर लौटते। टूल डाउन को एक महीना हो गया तब गेट मीटिंग में प्रेसिडेंट ने समझौता सुनाया परन्तु मजदूरों ने उसे ठुकरा दिया। टूल डाउन जारी। उत्पादन बन्द हुये दो महीने हो गये तब मीटिंग में यूनियन प्रेसिडेंट ने फिर एक समझौता सुनाया और मजदूरों ने उस समझौते को भी ठुकरा दिया। साढे तीन हजार मजदूरों द्वारा टूल डाउन जारी। कम्पनी और यूनियन फँस गई थी। उत्पादन बन्द को तीन महीने हो रहे थे तब फिर मीटिंग। योजना अनुसार अन्य फैक्ट्रियों से भी लोग लाये गये थे। यूनियन प्रेसिडेंट द्वारा समझौते की घोषणा को मजदूरों द्वारा ठुकराने की परवाह किये बगैर प्लान्टों में भाग कर कुछ लोगों ने मशीनें चालू कर दी थी। प्रेसिडेंट और महासचिव यह करने सैकेण्ड प्लान्ट में कूदे थे। कोसते हुये अपने-अपने प्लान्टों में जाने की बजाय हजारों मजदूर सैकेण्ड प्लान्ट में प्रधान और महासचिव के पीछे दौड़े। उन्हें पकड़ा। पिटाई की। दोनों लीडर भाग गये। टूल डाउन जारी रही थी।

साथियों ने अगले दिन, साप्ताहिक अवकाश के दिन राजदूत फैक्ट्री के सामने पार्क में आम सभा बुलाई। हजारों मजदूरों के बीच यूनियन लीडरों से इस्तीफा लेने के लिये कमेटी बनाने पर सहमति बनी। यूनियन ऑफिस पर साथियों का नियन्त्रण। टूल डाउन जारी। तीन दिन बाद यूनियन प्रेसिडेंट ने मीटिंग बुलाई। भारी पुलिस बल की उपस्थिति में प्रधान ने इस्तीफे की घोषणा की और नया नेतृत्व चुनने को कहा। साथियों की संघर्ष समिति बनाने की योजना असफल हो गई। पहले महासचिव रहे बन्दे ने नये नाम पेश किये और वो नये नेता मान लिये गये। मीटिंग के तत्काल बाद जिन दो साथियों के नाम यूनियन बॉडी में दिये गये थे उन्होंने मजदूरों के विरोध के बावजूद अपने इस्तिफों की जानकारी तीन पोस्टरों में दे दी थी। तीनों प्लान्टों में मशीनें चालू हो गई।

परन्तु लटकी छँटनी लटकी ही रही थी। 1984 आ गया। मैनेजमेन्ट ने नये सिरे से जाल बुना। मेन्टेनेन्स के नाम पर सबसे नये प्लान्ट, थर्ड प्लान्ट वरकरों की छुट्टियाँ करने और बाकी दो में उत्पादन जारी रखने की बात। साथियों द्वारा थर्ड प्लान्ट गेट पर अनशन करने पर लफड़ा बढता देख मैनेजमेन्ट ने तत्काल कदम उठाया। सीटू प्रेसिडेंट के दादा लोग लन्च ब्रेक से पहले अचानक थर्ड प्लान्ट पर पहुँचे और धक्कामुक्की कर साथियों को वहाँ से खदेड़ दिया था।

नये वाले यूनियन लीडरों को लाठियों से भगा कर सीटू प्रेसिडेंट की कमेटी ने कमान अपने हाथों में ली। प्लान्टों के अन्दर घेर कर। ड्युटी आते-जातों को रास्ते में पीट कर। मजदूरों से इस्तीफे लिये। सैक्टर-11की पुलिस चौकी और गेडोर फैक्ट्री के अन्दर तम्बुओं में पुलिस। साथियों को सुनाते रहते : आज रात इसके हाथ-पैर तोड़ेंगे। डेढ हजार मजदूरों को निकालने में डेढ वर्ष लगा था।

गेडोर हैण्ड टूल्स का नाम बदल कर झालानी टूल्स। और, मैनेजमेन्ट के शब्द : कम्पनी की छह फैक्ट्रियों से 2300 मजदूरों ने वालेन्ट्री सेपेरेशन लिया।

## हमारे अनुभव यूनियनों की भूमिका पर प्रश्न उठा रहे थे। बलविन्द्र कानपुर से इन्टरनेशनल कम्युनिस्ट करन्ट (आई.सी.सी.) के प्रकाशन लाये थे। जर्मन-डच वाम और इतालवी वाम की यूनियनों की आलोचना हमें ठीक लगने लगी थी।डाक द्वारा आई.सी.सी. से सम्पर्क किया। उनके प्रकाशन मिलने लगे थे। मजदूर समाचार के अप्रैल 1984 अंक में हम ने आई.सी.सी. की प्रस्थापनायें छापी। और अंक 26, मई 1984 अंक में कुछ समय तक मजदूर समाचार छापना बन्द करने की सूचना दी थी।

प्रश्न आधार का बना था। लेनिन की साम्राज्यवाद की धारणायें नहीं तो उनके स्थान पर क्या?

आई.सी.सी. ने रोजा लुक्जेमबर्ग की पुस्तक, The Accumulation of Capital का जिक्र किया। और, रोजा की पुस्तक के आरम्भ में ही मार्क्स के enlarged reproduction (वृहत्तर पुन: उत्पादन) के विशलेषण को गलत कहा गया है! जबकि, आई.सी.सी. ने रोजा और मार्क्स के, दोनों के विशलेषण को सही कहा!! और, यूरोप से आये आई.सी.सी. के एक सदस्य वैन तो बहुत-ही भोले लगे जब वे हमें बोले की मार्क्स की पूँजी और रोजा की Accumulation पढने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु बात यह लगती है, समस्या यह लगती है कि काफी समय से यूरोप-अमरीका में कई लोगों में ऐसी धारणायें गहरे बैठी हुई हैं कि दुनिया के बाकी क्षेत्रों में कुछ गड़बड़ है।

मजदूर समाचार छापना बन्द करने के बाद बल्लबगढ़ में मिल्क प्लान्ट रोड़ पर लाला राम जी के बगीचे में रहने का किया था। सुबह से साँय, मच्छरों के आक्रमण आरम्भ होने तक, मार्क्स-रोजा-लेनिन-बुखारिन-सोलिडेरिटी पैम्फलेट-मैटिक आदि को पढना और मनन-मन्थन करना।

1985 में यूरोप से आई.सी.सी. का तीन सदस्यीय दल मिलने आया था। चर्चाओं में भाग लेने विजय शंकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में सुलतानपुर जिले में बबरीपुर गाँव से आये थे। चिन्तामणि, दूधनाथ, भूपेन्द्र, हरि लाल, मण्डकोला गाँव (पलवल) से महेन्द्र, ओरियन्ट स्टील फैक्ट्री में बलविन्द्र के साथी सुपरवाइजर एन्थनी बातचीतों में रहे थे। भाषा की दिक्कत थी।

अन्तिम चर्चा एक नम्बर(एन एच 1) में बलविन्द्र के कमरे पर हुई। आई.सी.सी. दल ने हमें उनके संगठन से जुड़ने को कहा। बलविन्द्र सहमत थे पर मेरे एतराज थे। अन्ततः आई.सी.सी. वालों ने मुझे धमकी दी थी कि उनसे नहीं जुड़ेंगे तो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग पड़ जायेंगे।

बलविन्द्र आई.सी.सी. से जुड़ गये थे।

रात को सुनसान सड़क पर एक नम्बर से जवाहर कॉलोनी पैदल जाते समय विजय शंकर, भूपेन्द्र और मेरे बीच बहुत बातें हुई थी। विजय शंकर और भूपेन्द्र की सोची-विचारी राय थी कि हम आई.सी.सी. से दूर ही रहें।

यहाँ से नया आधार बनने लगा। नये धरातल की राह बनने लगी थी।

लाला राम आर्य समाज में भजनी से सी.पी.आई. में शामिल हुये थे और फिर सी.पी.आई.(एम), सी.पी.आई. (एम-एल) के सक्रिय समर्थक रहे थे। बल्लबगढ़ में पंचायती जमीन पर मुजारे थे। बहुत मेहनत से उन्होंने बाग लगाया था। मेरे फरीदाबाद-मेवात दौर में लाला राम जी ने मुझे अपने साथ बाग मे रखा था। उनकी पत्नी का व्यवहार बहुत अच्छा था। पैसों की बहुत अधिक दिक्कत हुई तब फिर 1984-85 में मैं लाला राम जी के बाग में रहा।

## 1986 में हिन्दी और अँग्रेजी में कम्युनिस्ट क्रान्ति का पहला अंक प्रकाशित। और फिर मजदूर समाचार की नई सीरीज छापना शुरू।

एक से दो पन्ने हुये थे पर प्रतियाँ हजार-दो हजार ही रही। अन्त-1993 में चार हजार प्रतियाँ छापी। चारों पन्नों में फैला था, “एस्कॉर्ट्स मजदूरों से कुछ गपशप”। अन्य स्थानों के साथ-साथ एस्कॉर्ट्स समूह की फैक्ट्रियों के गेटों पर भी हर महीने की तरह बँट रहा था। एस्कॉर्ट्स मोटर साइकिल डिवीजन(राजदूत प्लान्ट) पर बी-शिफ्ट में बाटा वरकर दूधनाथ और मैं बाँट रहे थे। चालीस-पचास प्रतियाँ बची थी जब फैक्ट्री की तरफ से चार-पाँच युवा वरकर आये और हम से उलझे। खींचा-तान कर दूधनाथ जी और मेरे से प्रतियाँ छीन कर धमकियाँ देते हुये वापस गये थे।

“एस्कॉर्ट्स मजदूरों से कुछ गपशप” में सामग्री मैनेजमेन्ट और यूनियन के बीच 1982 से 1992 के दौरान के समझौतों पर थी। इसे बहुत रोचक ढँग से दिल्ली में युवा मित्रों ने तैयार किया था। वह युवा मित्र जीबेश बागची, मोनिका नरूला, शुद्धब्रत सेनगुप्ता, मोनिका भसीन, अमित महाजन थे।

फरीदाबाद में महीने में कम से कम पाँच हजार प्रतियों की अनिवार्य आवश्यकता उत्पन्न हो गई थी। पाँच हजार छापने लगे। फरीदाबाद से लगते-से दिल्ली के ओखला औद्योगिक क्षेत्र में भी मजदूर समाचार बँटने लगा।

## मजदूर समाचार में हर महीने बीस-पच्चीस फैक्ट्रियों के मजदूरों की बातें सामान्य तौर पर छपती हैं। ऐसे में एक फैक्ट्री के मजदूरों की बातें अधिक फैक्ट्रियों के मजदूरों में फैलने लगी।

■ एक रिपोर्ट पर मथुरा रोड़ और इन्डस्ट्रियल एरिया में फैक्ट्रियों वाली नूकेम लिमिटेड मैनेजमेन्ट ने हमें मानहानि का नोटिस भेजा था।

■ एक दिन छरहरे बदन का एक युवा मजदूर लाइब्रेरी में आया और बोला “मैं इस इलाके का बाप हूँ।”
“बैठिये।”
बगल में ईस्ट इण्डिया कॉटन मिल के सामने एक फैक्ट्री का नाम(छोटी फैक्ट्री, नाम ध्यान में नहीं है) ले कर : “इसकी रिपोर्ट किस मजदूर ने लिखवाई है?”
“नाम नहीं बताये जाते।”
“बताना ही होगा।”
“नाम नहीं बताये जाते भाई।”
“आपके ऐसा करने से कुछ नहीं होगा। यहाँ कुछ नहीं बदलेगा।”
“करना तो बनता है।”
“आप मेरे पिता समान हो। मैं मुजेसर गाँव का हूँ। (नाम शायद पवन चौधरी बताया था।) आगे से इस फैक्ट्री की बातें नहीं छापना।”
दस-पन्द्रह मिनट ऐसी बातें हुई थी और मोटरसाइकिल पर वह चला गया था। बाद में पता चला कि वह तीन-चार चक्कर पहले काट गया था।

■ सामने की झुग्गी में गेडोर सैकेण्ड प्लान्ट के रमेश(लम्बू) रहते थे। 1988 में ऑटोपिन झुग्गियों में मजदूर लाइब्रेरी के लिये कमरा ढूँढ रहे थे तब रमेश जी ने ही जगह दिलवाई थी। आपस में सौ-सौ रुपये और कुछ मित्रों के पाँच सौ रुपये के योगदान से पाँच हजार में बन्द पड़ा एक कमरा खरीद ही लिया था। रमेश जी अनपढ थे, रहने को कच्चे कमरे बनाये थे, भोजन बहुत मन से बनाते थे, रविवार को दाल-भरे पराँठे मुझे प्रेम से खिलाते थे। बी-शिफ्ट वाली ड्युटी में रमेश मजदूर समाचार बँटवाने में भी रहते थे। एक रोज नाइट ड्युटी समाप्त होते ही रमेश जी को पकड़ कर यूनियन लीडर सैक्टर-11 पुलिस चौकी ले गये थे और रमेश जी के नाम से मेरे खिलाफ रिपोर्ट लिखवाई थी कि मैं उन से जबरन मजदूर समाचार बँटवाता हूँ।

■ सैक्टर-25 में बाबा शूज फैक्ट्री में बाटा शू कम्पनी का काम होता था। मजदूरों की छपी बातों पर क्रोध से भरे मैनेजमेन्ट के तीन लोग हमें धमकाने मजदूर लाइब्रेरी आये थे।

■ राजनारायण के पिता गेडोर सैकेण्ड प्लान्ट के सामने यूनियन ऑफिस की बगल में मिलहार्ड झुग्गियों में रहते थे। वे गेडोर फैक्ट्री में वरकर थे, ऑफिस की सफाई करते थे, यूनियन लीडरों के चाय-पानी का काम करते थे। यूनियन प्रेसिडेंट ने उनके बेटे को फैक्ट्री में लगवा दिया था। और, नेताओं के निर्देश पर राजनारायण सीटू के लठैतों के साथ मुँह ढँक कर मारपीट करने जाते थे। तनखाओं में कटौतियाँ, कई-कई महीनों की तनखायें बकाया, और वर्षों गेडोर साथियों के व्यवहार को देखने के बाद युवा राजनारायण मजदूर समाचार बाँटने आने लगे थे। 1999 में बाटा रेलवे क्रासिंग पर पुल बन रहा था। एक दिन सुबह की शिफ्ट में निर्माण की बगल में मजदूर समाचार बाँटने वालों में राजनारायण भी थे। हम लोग एक-दूसरे से दूर-दूर थे और आपस में दिखते भी कम थे। अचानक शोर पर मैं दौड़ा और राजनारायण को घिरे पाया। धक्का-मुक्की में मैं नीचे गिर गया था और राजनारायण को पीटने आये पन्द्रह-सोलह लोग गेडोर फैक्ट्रियों की तरफ वापस चले गये थे।

राजनारायण ने सीटू लीडरों की कुछ अन्दरूनी बातें बताई। 1983 में हड़ताल करवा कर लखानी फैक्ट्री के 500 मजदूरों को नौकरी से निकलवाने का ठेका सीटू प्रेसिडेंट ने 37 हजार रुपये में लिया था।

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