व्यवहार-विचार की ऊँची उड़ानों – VI | नर-नारी के सम्बन्ध में

इधर विश्व-भर में लॉकडाउन-पूर्णबन्दी ने व्यवहार-विचार की उड़ानों के अनुकूल वातावरण में बहुत उल्लेखनीय वृद्धि की है।

ऐसे में 2010-12 में फैक्ट्री मजदूरों के व्यवहार-विचार से प्रेरित मजदूर समाचार के जनवरी 2013 अंक की उड़ान एक प्रेरक भूमिका निभा सकती लगती है। प्रस्तुत है उसका छठा अंश, नर-नारी के सम्बन्ध में।

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“मैं यह क्या कर रही हूँ? मैं क्यों यह कर रहा हूँ ? हम यह-यह-यह क्या कर रहे हैं? हम यह-यह-यह क्यों कर रहे हैं? जिस-जिस में मन लगता है वही मैं क्यों नहीं करती? जो अच्छा लगता है वही, सिर्फ वही मैं क्यों न करूँ? हमें जो ठीक लगता है उसके अलावा और कुछ हम क्यों करें? मजबूरियाँ क्या हैं? मजबूरियों से पार कैसे पायें ?” प्रत्येक द्वारा, अनेकानेक समूहों द्वारा, विश्व में हर स्थान पर, प्रतिदिन के यह “क्या-क्यों-कैसे” वाले सामान्य प्रश्न जीवन के सार के इर्द-गिर्द थे- हैं | जीवन तो वह है जो तन-मन के माफिक हो, तन-मन को अच्छा लगे । जीवन आनन्द है ! जो तन-मन के विपरीत हो, तन-मन को बुरा लगे वह तो शाप है, पतन है | मानव योनि में जन्म आनन्द है अथवा शाप है वाली पाँच हजार वर्ष पुरानी गुत्थी को मजदूर व्यवहार में सुलझा रहे हैं, मानव योनि व्यवहार में सुलझा रही है।

## चीन में महिला मजदूर फैक्ट्रियों से निकली और पुरुष मजदूर उनके संग-संग थे. बंगलादेश में महिला मजदूर फैक्ट्रियों से निकली और पुरुष मजदूर उनके साथ थे. …. भारत में स्कूलों-कॉलेजों-विश्वविद्यालयों से छात्र-छात्रायें साथ-साथ बाहर निकले.

…. तीन वर्ष पहले नर और नारी के बीच सहज सम्बन्धों की उठती लहरें पूरे संसार में आरम्भ हुई थी। स्त्री और पुरुष के बीच परस्पर आदर तथा प्रेम के बढ़ते रिश्ते दुनिया को अधिकाधिक सुगन्धित करने लगे | मदमस्त करती 2016 की वसन्त ऋतु में प्रकृति में बहार के संग मानव योनि में विश्व-व्यापी बहार है….

फरीदाबाद में यह शाही एक्सपोर्ट फैक्ट्री थी। आज यहाँ लड़के-लड़कियों, स्त्री-पुरुषों के बीच नर और नारी के बहुआयामी सम्बन्धों पर कई किस्म की बातें हो रही हैं। रोचक चर्चायें…

शास्त्रों में, ईश्वरवाणियों में स्त्री को पाप की मूर्ति क्यों कहा गया था? त्रिया चरित को देवता भी नहीं समझ सकते का अर्थ क्या है? प्रकृति ने स्त्री को पुरुष से अधिक यौन क्षमता दी है, एक पुरुष एक स्त्री की भी यौन संतुष्टि नहीं कर सकता, फिर एक पुरुष द्वारा कई स्त्रियों को यौन-तृप्ति के नाम पर मुट्ठी में रखने के प्रयासों का मतलब क्या था? प्रकृति में नर और मादा के अलावा भी लिंग….

मानव योनि में परिवार रूपी संस्था का उदय कब हुआ? परिवार के केन्द्र में पुरुष क्यों था? रक्त की उत्पत्ति तो माँ के गर्भ में होती है – पुरुष के “मेरा खून” उद्घघोष का अर्थ क्या था? परिवार के बदलते स्वरूपों को कैसे समझें? महिलाओं का मजदूर बनना क्या दर्शाता था? स्त्री का मजदूर बनना नारी सशक्तिकरण कैसे था?….

यह संयोग था कि समुदायों की टूटन के दौरान उपजे “मैं” के वाहक पुरुष बने थे। जन्म के पश्चात मृत्यु निश्चित – “मैं’ के लिये इससे उपजती असहय पीड़ा ने पुरुषों को पगला दिया। और, स्त्रियों से डरते पुरुषों की ऊल-जलूल हरकतों ने स्त्री व पुरुष के बीच रिश्ते असहज बनाये थे…..

फैक्ट्री-पद्धति में, मजदूरी-प्रथा में यह (पुरुष) मजदूरों की बदतर होती स्थिति थी जिसने परिवार में अनके परिवर्तन लाये और बढती संख्या में महिलायें मजदूर बनने लगी…..

मजदूर बनी महिलायें “मैं” की नई वाहक बनी थी। स्त्री होना और मजदूर होना पुरुष के मजदूर होने से भी अधिक परेशानी लिये था…जटिल परिस्थतियों से पार पाने के लिये कल्पना-रचना-सृष्टि के दीर्घकालीन अनुभवों ने महिला मजदूरों को मजदूरी-प्रथा पर घातक चोट मारने के योग्य बनाया था । मजदूरी-प्रथा के अनेकानेक अनुभवों वाले पुरुष मजदूरों और महिला मजदूरों का यह मेल-मिलाप था जिसने तीन वर्ष पहले मजदूरी-प्रथा के अन्त की शुरुआत की थी। मजदूरी-प्रथा में प्रत्येक व्यक्ति के अधिकाधिक गौण होते जाने के विपरीत अब हम हर एक को महत्व के आधार पर स्त्रियों व पुरुषों के बीच सहज सम्बन्धों की राहों पर बढ रहे हैं….

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