इधर विश्व-भर में लॉकडाउन-पूर्णबन्दी ने व्यवहार-विचार की उड़ानों के अनुकूल वातावरण में बहुत उल्लेखनीय वृद्धि की है।
ऐसे में 2010-12 में फैक्ट्री मजदूरों के व्यवहार-विचार से प्रेरित मजदूर समाचार के जनवरी 2013 अंक की उड़ान एक प्रेरक भूमिका निभा सकती लगती है। प्रस्तुत है उसका दूसरा अंश जो भोजन के बारे में है।
व्यवहार-विचार की ऊँची उड़ानों का आनन्द-उल्लास प्राप्त करें।
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“मैं यह क्या कर रही हूँ? मैं क्यों यह कर रहा हूँ ? हम यह-यह-यह क्या कर रहे हैं? हम यह-यह-यह क्यों कर रहे हैं? जिस-जिस में मन लगता है वही मैं क्यों नहीं करती? जो अच्छा लगता है वही, सिर्फ वही मैं क्यों न करूँ? हमें जो ठीक लगता है उसके अलावा और कुछ हम क्यों करें? मजबूरियाँ क्या हैं? मजबूरियों से पार कैसे पायें ?” प्रत्येक द्वारा, अनेकानेक समूहों द्वारा, विश्व में हर स्थान पर, प्रतिदिन के यह “क्या-क्यों-कैसे” वाले सामान्य प्रश्न जीवन के सार के इर्द-गिर्द थे- हैं | जीवन तो वह है जो तन-मन के माफिक हो, तन-मन को अच्छा लगे । जीवन आनन्द है ! जो तन-मन के विपरीत हो, तन-मन को बुरा लगे वह तो शाप है, पतन है | मानव योनि में जन्म आनन्द है अथवा शाप है वाली पाँच हजार वर्ष पुरानी गुत्थी को मजदूर व्यवहार में सुलझा रहे हैं, मानव योनि व्यवहार में सुलझा रही है।
## आश्चर्य होता है कि तीन वर्ष पहले तक काफी कही-सुनी जाती “पापी पेट का सवाल है नहीं तो….” वाली बातें 2016 की वसन्त ऋतु में प्राचीन-सी लगने लगी हैं | मण्डी-मुद्रा को, रुपये-पैसे को बन्द करते ही सब को भोजन की प्राप्ति सहज हो गई थी…..
फरीदाबाद में यह गुडईयर टायर फैक्ट्री थी। इसे घेरे काँटेदार तार अब नहीं हैं | गार्ड नहीं हैं, मजदूर नहीं हैं, मैनेजर नहीं हैं अब यहाँ। रेत पर, घास में शिशु किलकारियाँ मार रहे हैं | लड़के-लड़कियाँ उछल-कूद रहे हैं, नीम के पेड़ों पर चढ रहे हैं | जोड़ियों में, समूहों में युवक-युवतियाँ हँस-बोल रहे हैं, नाच-गा रहे हैं, मस्ती कर रहे हैं। अधेड़ प्रसन्नचित हैं, शिशुओं-बच्चों-युवाओं को निहार रहे हैं । मदमस्त करती वसन्त ऋतु में वृद्धजन जीवन का आनन्द ले रहे हैं…..
भौतिक दायरे में सुरक्षा, प्राण यानी वायु , जल के पश्चात जीवन के लिये भोजन एक अनिवार्य आवश्यकता है। प्रकृति में उपलब्ध भोजन, प्रकृति द्वारा प्रदत भोजन….. पशुओं को नाथना प्रस्थान-बिन्दु बना था मानव द्वारा प्रकृति से परे जा कर, प्रकृति के विरुद्ध जा कर भोजन उत्पन्न करने का । जमीन को जोतने ने इसे बढाया था। पशुओं को नाथना, जमीन को जोतना मण्डी के विस्तार के साथ तेजी से बढा था और पिछले डेढ सौ वर्ष के दौरान दूध उत्पादन, माँस उत्पादन, अनाज उत्पादन बढते पैमाने पर फैक्ट्री-पद्धति से होने लगा था। कम से कम लागत पर अधिक से अधिक उत्पादन मण्डी के चरित्र में है और फैक्ट्री-पद्धति भोजन सामग्री के उत्पादन में रसायनिक खाद, कीटनाशक दवायें, संकर बीज, जेनेटिकली मोडिफाइड (जी एम) बीज, शीघ्र और अधिक माँस के लिये मुर्गियों-गायों-सुअरों को नई खुराकें तथा दवाइयाँ, अधिक दूध के लिये नई खुराकें-दवा-इंजेक्शन, बीस-पच्चीस हजार एकड़ के फार्म, हजारों गायें बाड़ों में, दसियों हजार मुर्गियाँ बन्द स्थानों पर, पशुओं के क्लोन तैयार करना आदि अपने संग लिये थी । मानव योनि प्रतिवर्ष अरबों टन अनाज, करोड़ों टन माँस, करोड़ों टन दूध, लाखों टन मक्खन का उत्पादन करने लगी थी । अनाज से भरे गोदाम, भण्डारण एक समस्या, नष्ट होता अनाज – मण्डी में भाव के फेर में मारी जाती हजारों गायें, नष्ट किया जाता अनाज, खाली छोड़ी जाती जमीन….. और संसार में करोड़ों लोग भूखे रहते थे। बर्ड फ्लू को फैलने से रोकने के लिये मार कर दफनाई जाती दसियों हजार मुर्गियाँ, गायों में-सुअरों में बीमारियों को फैलने से रोकने के लिये हजारों को काट कर दफना देना-भस्म कर देना…..
भोजन सामग्री का उत्पादन आस्ट्रेलिया, अमरीका, कनाडा, यूरोप में फैक्ट्री-पद्धति से, मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन था। भारत, मिश्र, ब्राजील आदि-आदि स्थानों पर दो-चार-दस-बीस-पचास एकड़ के खेतों में निजी व परिवार के श्रम से मण्डी के लिये उत्पादन उल्लेखनीय था। लेकिन विश्व में हर जगह भोजन सामग्री के उत्पादन में रसायनिक खाद, कीटनाशकों आदि का प्रयोग अधिकाधिक हो रहा था। साग-सब्जी में, फलों में, अनाज में, माँस में, दूध में कीटनाशक आदि पहुँच गई थी – माँ के दूध में भी कीटनाशक प्रवेश कर गये थे…. घुल कर-रिस कर भूजल में पहुँचते रसायनिक खाद, कीटनाशक….. कैंसर-कैंसर-कैंसर….. भोजन सामग्री का उत्पादन जहर का उत्पादन बन गया था। भोजन का उपभोग, रोटी खाना-पानी पीना रोगों का उत्पादन बन गया था……
“यह हम क्या कर रहे हैं? हम क्यों कर रहे हैं ? कैसे रोकें इसे?” चहुंओर गूंज रहे इन प्रश्नों के उत्तर तीन वर्ष पहले जगह-जगह से धड़ाधड़ आने लगे थे। मीट फैक्ट्रियों में मजदूरों ने काम बन्द कर दिया — अमरीका में मीट फैक्ट्रियों से सर्वग्रासी लाइन सिस्टम आरम्भ हुआ था….. विशाल फार्मों पर माँस के लिये पाली जा रही गायों को, सुअरों को, मुर्गियों को वहाँ काम करते मजदूरों ने खुले में छोड़ दिया…. कीटनाशक बनाने वाली फैक्ट्रियों को मजदूरों ने ठप्प कर दिया….. रसायनिक खाद बनाने वाले कारखानों में मजदूरों ने काम बन्द कर दिया….. भटिण्डा में, पलवल में किसानों ने और आस्ट्रेलिया, अमरीका, कनाडा में फार्म वरकरों ने कीटनाशक, रसायनिक खाद, संकर बीज, जी एम बीज प्रयोग करने बन्द कर दिये….. कृषि विश्वविद्यालयों में – बीज फार्मों पर काम करते मजदूर आराम फरमाने लगे और अनुसन्धान में लगे वैज्ञानिकों ने हाथ खड़े कर मुक्ति की साँस ली थी।
यह सब बन्द करना तो ठीक पर…. पर रोटी कहाँ से आयेगी? लगता था कि यह प्रश्न उठेगा लेकिन यह अन्दाजा नहीं था कि भोजन के बारे में बहुत मन्थन हो चुका था और उससे भी अधिक मन्थन इतनी तेजी से होगा…….
भूख लगे तब भोजन करना । बहुत ठीक है पर एक भूख तन की होती है और एक भूख मन की होती है । मनुष्य तन की आवश्यकता से अधिक भोजन कर रहे थे जो कि हानिकारक था । अधिक भोजन करने का कारण सामाजिक था, मन भूखे थे…..
तन की पूर्ति के लिये कितना भोजन चाहिये? कितना से पहले कैसा भोजन की बात आती है। कबाड़-जंक फुड की चर्चा तो पहले भी व्यापक थी पर इसका त्याग आश्चर्यजनक गति से हुआ । इन तीन वर्षों में अनाज, माँस, दूध की खपत में भारी कमी आई है। रसायनिक खाद-कीटनाशकों के प्रयोग के बिना अनाज का जो उत्पादन हुआ है उसने पुराने भण्डारों से निकास कम ही होने दिया है। भोजन सामग्री पकी हुई अथवा कच्ची-अंकुरित……..
तीन सफेद, नमक-चीनी-दूध और मानव शरीर के बीच सम्बन्धों पर चर्चायें बहुत बढी । मानव शिशु के लिये माँ का दूध पर्याप्त है वाली बात तो ठीक है पर गाय-भैंस-बकरी का दूध मानव शरीर के माफिक नहीं है वाली चर्चायें 2016 में भी जारी हैं।
पशुओं को नाथना-दुहना अच्छा नहीं है और ऐसा करना जरूरी नहीं है वाली बात काफी समय से विचारणीय थी। लेकिन बिना हल चलाये, बिना धरती को चीरे, बिना काम किये भोजन का उत्पादन करना काल्पनिक नहीं है जैसी बातें इधर बहुत रोचक हो गई हैं।
काल के पहिये को हम पीछे की ओर नहीं घुमा सकते लेकिन प्रकृति से मेल खाते भोजन सामग्री के उत्पादन के तौर-तरीकों की अनिवार्य आवश्यकता……. ऐसे कई तौर-तरीके प्राचीन थे और अनेक स्थानों पर अनेक लोगों द्वारा नये-नये प्रयोग-परीक्षण भी किये जा रहे थे पर वे छिटपुट-छुटपट ही रहे थे… इन तीन वर्षों में प्रकृति से मेल खाते, प्रकृति की सहायता से भोजन सामग्री उत्पादन के तौर-तरीके बहुत तेजी से प्रयोगों के, व्यवहार के केन्द्र बने हैं।