आप-हम क्या-क्या करते हैं … (5)

● मजदूर समाचार के जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों से सामग्री चुन कर अप्रैल 2021 में हम ने 625 पन्ने की पुस्तक “सतरंगी” प्रकाशित की। छपी हुई प्रति हम से ले सकते हैं। पुस्तक की पीडीएफ भी हम भेज सकते हैं।

● मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। इधर इस के 51 अंश प्रसारित किये। अन्य सामग्री और अध्याय आदि तैयार करना अभी चलेगा।

● अब मजदूर समाचार के जनवरी 2000 से दिसम्बर 2004 अंकों की सामग्री से पुस्तक सतरंगी-3 तैयार करना आरम्भ किया है। इस का दसवाँ अंश यहाँ प्रस्तुत है। यह जुलाई 2003 अंक से है।

ओखला (दिल्ली) में काम करता 35 वर्षीय मजदूर : दो साल ही हुये हैं मुझे मजदूर बने। दो वर्षों में ही मैं सिले-कढे वस्त्रों का निर्यात के लिये उत्पादन करने वाली चार फैक्ट्रियों में काम कर चुका हूँ तथा पाँचवीं में काम कर रहा हूँ। मैं फरीदाबाद में इविनिक्स एक्सपोर्ट, सागा एक्सपोर्ट, पी-एम्परो एक्सपोर्ट तथा नोएडा में ओरियन्ट क्राफ्ट में काम कर चुकने के बाद अब ओखला फेज-1 में एक फैक्ट्री में सिलाई कारीगर हूँ। दौर ही ऐसा आ गया है कि 4 महीने यहाँ काम करो और 6 महीने वहाँ — कम्पनियों ने मजदूरों को परमानेन्ट करना बन्द कर दिया है।

नौकरी करने की मेरी कोई इच्छा नहीं थी। मैंने क्या-क्या और कहाँ-कहाँ धन्धे किये! लेकिन इस समय छोटे धन्धों के जो हाल हैं उन्हें देखते हुये नौकरी ही ठीक लगती है क्योंकि छोटे धन्धे चल नहीं पा रहे।

आरम्भ हृदय रोग से

गोरखपुर जिले के गाँव में मैं दसवीं में पढता था तब मेरे सीने में दर्द होने लगा था। जगह-जगह जाँच/इलाज करवाने के बाद दिल्ली में मेडिकल में जाँच में मेरे हृदय का वाल्व सिकुड़ा पाया गया। मामला गम्भीर — 1987 में मेडिकल में मेरे हृदय की बाईपास सर्जरी हुई। ऑपरेशन सफल रहा। छह-सात हजार रुपये खर्च हुये — आज की तरह एक लाख से ऊपर लगते तो मैं मर चुका होता।

धन्धे-दर-धन्धे

ठीक होने के बाद मैंने 12वीं की और आगे इसलिये नहीं पढा कि हृदय ऑपरेशन के कारण सरकारी नौकरी तो मिलेगी नहीं। कमाई के लिये 1989 में मैं बम्बई गया। वहाँ भिवंडी में गाँव के परिचित की कपड़े की दुकान पर एक महीने ही नौकरी कर पाया। ताबेदारी की जलालत और चौतरफा गन्दगी के मारे मैं अपने चचेरे भाई के पास पूना चला गया। भाई एक बेकरी में रहते थे और सुबह 5 से 7 बजे तक पाव-बिस्कुट बेचते थे तथा शाम को फुटपाथ पर कपड़े की दुकान लगाते थे। बम्बई में नौकरी में कमाये दो सौ रुपये से मैंने पूना में पटरी पर महिलाओं का सिंगार सामान बेचने का धन्धा शुरू किया। छह महीने बाद मैं जूते-चप्पल बेचने लगा और साल-भर वह करने के बाद कपड़े बेचना शुरू किया। पहले-पहल पटरी दुकानदारों को ज्यादा परेशानी नहीं थी, बस नगर निगम की गाड़ी दिखती थी तब हम सामान बटोर कर गलियों में भाग जाते थे। लेकिन नगर निगम ज्यादा परेशान करने लगा तो 1991 के अन्त में मैं पूना छोड़ कर अपने भाई के पास गुड़गाँव पहुँचा।

दिल्ली की आजादपुर सब्जी मण्डी से हफ्ते की हफ्ते बोरी-पेटियाँ उठा कर मैं गुड़गाँव में रेहड़ी पर सब्जी बेचने लगा। मेहनत बहुत थी और दो बन्दे चाहियें थे पर मुझे अकेले करना पड़ा — फरीदाबाद में फ्लाईव्हील फैक्ट्री बन्द हो जाने के बाद भाई गुड़गाँव में एक फैक्ट्री में लगा था। पाँच महीने बाद मैंने सब्जी बेचनी बन्द कर दी और फरीदाबाद आ गया — यहाँ भाई की झुग्गी थी।

चाँदनी चौक, दिल्ली में कपड़े की थोक मण्डी से माल खरीद कर मैं फरीदाबाद में पटरी पर शर्ट-पैन्ट पीस बेचने लगा और साल-भर यह किया। फिर गोरखपुर में गाँव की बगल में एक बन्दे के प्रोत्साहन पर धन्धा करने थाइलैण्ड की राजधानी बैंकाक गया — 1994 में पासपोर्ट, 4 महीने के टूरिस्ट वीजा और विमान यात्रा टिकट पर 12 हजार रुपये खर्च आया था।

धन्धे बैंकाक में

भ्रमण की आड़ में बहुत लोग धन्धे करते हैं और ऐसा करने हम 4 बन्दे 1994 में बैंकाक गये। हमें साथ ले गया बन्दा वहाँ फेरी लगा कर मच्छरदानी बेचता था। हम चारों एक कमरे में रुके। हमें थाई भाषा नहीं आती थी, कोई मदद करने वाले नहीं थे और हम खो से गये — 10-15 दिन ऐसे ही निकल गये। हमारे पास पैसे बिलकुल नहीं बचे थे और हमें साथ ले जाने वाला भोजन के सिवा हमारी कोई सहायता नहीं कर रहा था। भारत से बैंकाक जा कर बस गये एक बन्दे ने ऐसे में मुझे धन्धा शुरू करने के लिये एक सौ रुपये दिये और थोड़ी थाई भाषा भी सिखाई। मैंने 50 रुपये में बच्चों के खाने की चीजें ले कर स्कूलों के सामने बेचनी शुरू की। फिर मैंने फेरी लगा कर कच्छे बेचे और उसके बाद घूम-घूम कर कमीज, टी-शर्ट, पैन्ट-कोट बेचे। टूरिस्ट वीजा पर धन्धा करना अवैध होता है इसलिये एक स्थान पर टिक कर नहीं बेचता था।

भ्रमण वीजा नवीनीकरण के लिये दो महीने बाद एक एजेन्सी के जरिये अपने जैसे 15 लोगों के साथ थाईलैण्ड की सीमा पार कर लाओस गया। वहाँ हफ्ते-भर नाचने-गाने के दौरान दूतावास से मोहर लगवा कर दो महीने वीजा बढवाया और फिर बैंकाक लौट कर धन्धा शुरू किया। लाओस जाने-ठहरने-लौटने का खर्च एजेन्सी 4 हजार रुपये प्रति व्यक्ति लेती थी और हर दो महीने बाद हमें यह करना पड़ता था। इस प्रकार मैंने बैंकाक में साल-भर गुजारा।

मेरे जैसे बहुत लोग यह सब कर रहे थे कि मार्च 1995 में थाई सरकार ने हम लोगों की तुरन्त गिरफ्तारी के आदेश दिये। रात-दिन छापे पड़ने लगे और कई लोग जेल में डाल दिये गये। एक हफ्ते तक तो मैं कमरे से नहीं निकला। फिर एक दिन बस से माल समेत उतरा ही था कि खुफिया पुलिस ने मुझे पकड़ लिया और थाने ले गई। बैंकाक बसे बन्दे की सहायता से मैं जस-तस छूटा और फिर धन्धा करने लगा। लेकिन थाईलैण्ड सरकार ने वीजा नवीनीकरण का समय दो की जगह एक महीना कर दिया। ऐसे में बैंकाक 11 महीने रहने के बाद मैं लौट आया। थाईलैण्ड में लोग हँस कर बोलना पसन्द करते हैं और फेरी लगा कर डरते-डरते सामान बेचते हुये भी मुझे वहाँ अच्छा लगा।

ठेकेदारी भी की

बैंकाक से लौट कर कुछ दिन गाँव रह कर फरीदाबाद आ गया। पटरी पर पुनः कपड़े बेचना शुरू किया। उसे छोड़ एक फैक्ट्री से ढले एल्युमिनियम की फाइलिंग का ठेका लिया। उसे छोड़ फिर पटरी पर कपड़े बेचने लगा। फिर सिले-कढे वस्त्रों का निर्यात करती फैक्ट्रियों से पीस रेट पर हाथ की कढाई का काम ला कर झुग्गियों में औरतों से करवाया … और 2002 के आने तक मैं स्वयं मजदूर बन गया।

मजदूर के नाते दिनचर्या

गाँव में कुछ खेती है — पत्नी व बच्चे वहाँ रहते हैं तथा मैं यहाँ झुग्गियों में रहता हूँ। जब धन्धे करता था तब 7-8 बजे उठता था लेकिन अब सुबह सही साढे पाँच बजे उठ जाता हूँ। बाहर खुले में टट्टी जाना पड़ता है। फिर साढे छह तक भोजन तैयार कर लेता हूँ। नहा-खा कर तैयार हो सवा सात बजे स्टेशन के लिये निकल पड़ता हूँ और 7:40 की गाड़ी पकड़ता हूँ।

ट्रेन में बहुत भीड़ होती है। तुगलकाबाद स्टेशन पर 8:10 तक गाड़ी पहुँच जाती है। विशाल रेलवे यार्ड की लाइनें पार कर तेखण्ड पहुँचने में 20 मिनट लग जाते हैं और फिर उसके आगे फैक्ट्री पहुँचने में 15 मिनट। पौने नौ कम्पनी पहुँच कर मैं गेट पर चाय की दुकान पर दस मिनट अखबार पढता हूँ — चाय नहीं पीता। नौ में 5 मिनट रहते हैं तब पहली घण्टी बजती है और मैं गेट पर कार्ड पंच कर अन्दर जा कर मशीन साफ करता हूँ। नौ बजे दूसरी घण्टी बजती है और काम शुरू हो जाता है।

9 से साढे बारह बजे तक कोई ब्रेक नहीं, चाय-वाय कुछ नहीं, लगातार काम करना पड़ता है। मैं उत्पादन कार्य में हूँ। सुपरवाइजर तथा इन्चार्ज लाइन पर घूमते रहते हैं, सिर पर खड़े रहते हैं — टारगेट चाहिये! हमारे दिमाग में टारगेट पूरा करना ही घूमता रहता है।

काम चेन सिस्टम से होता है। कमीज को ही लें तो कोई कॉलर का कच्चा काम करेगा, कोई फिर पक्का, कोई साइड जोड़ेगी, कोई जेब … एक कमीज 22-25 कारीगरों के हाथों से गुजर कर बनती है जबकि कपड़ा हमें कम्पनी की दूसरी फैक्ट्री से कटा हुआ मिलता है। उत्पादन के बाद फिनिशिंग में भी एक कमीज 25-30 के हाथों से गुजरती है। हर कमीज को तैयार करने में 50-55 मजदूरों के हाथ तो सिलाई-सफाई में ही लगते हैं। स्त्री व पुरुष मजदूर लाइन पर अगल-बगल में काम करते हैं और जहाँ मैं काम करता हूँ वहाँ तीस प्रतिशत महिलायें हैं। स्टाइल अनुसार आठ घण्टे में 800-1000-1200 कमीजों का दिया हुआ हिस्सा प्रत्येक कारीगर को तैयार करना पड़ता है। महीने में दो-तीन स्टाइल बदलती हैं।

साढे बारह से एक भोजन अवकाश। फैक्ट्री में कैन्टीन नहीं है। उत्पादन कार्य तहखाने में होता है और फैक्ट्री की तीसरी मंजिल के ऊपर एस्बेसटोस चद्दरें डाल कर भोजन के लिये कम्पनी ने मेज-कुर्सी लगाई हैं। ज्यादातर मजदूर खाना साथ लाते हैं। हाथ धोने, पानी लेने, भोजन करने में ही आधा घण्टा निकल जाता है — बातचीत के लिये समय होता ही नहीं।

एक बजे घण्टी बजती है और मशीनों पर काम शुरू हो जाता है तथा पौने चार तक लगातार चलता है। तब 15 मिनट का पहला टी-ब्रेक होता है और फैक्ट्री से बाहर निकल कर हम चटपट चाय पीते हैं। चार बजे फिर शुरू हो कर साढे पाँच तक काम चलता है। ओवर टाइम लगता है तब पौने छह बजे 15 मिनट चाय पीने के लिये देते हैं और फिर रात साढे आठ तक काम होता है। ओवर टाइम के पैसे सिंगल रेट से देते हैं। वैसे, जो आर्डर देते हैं, अमरीका-रूस-जर्मनी-जापान के बायर हैं उनका निर्देश है कि ओवर टाइम नहीं होगा। उनके निर्देश तो कार्य के वक्त टोपी व मास्क पहनने, सूई से रक्त निकलने पर दवाई, आदि-आदि के भी हैं। चार-छह महीने में उनका दौरा होता है तब दो-चार दिन के लिये यह सब तामझाम होता है और मैनेजर के कहे अनुसार उत्तर देने वाले लोग भी तैयार रखे जाते हैं।

गाड़ी की वजह से फरीदाबाद वाले वरकरों का ओवर टाइम साढे सात तक होता है। जो हो, थकावट के कारण स्टेशन पहुँचने में सुबह के 35 की जगह 40 मिनट लग जाते हैं। पौने सात अथवा 8:20 की गाड़ी से 7:10 अथवा पौने नौ बजे रात यहाँ स्टेशन पर उतरता हूँ और फिर थके जिस्म से बीस मिनट पैदल मार्च।

मण्डी से सब्जी लाना, दुकान पर अखबार पलटना, कपड़े धोना … यह तो शुक्र है कि मुझे रात का भोजन नहीं बनाना पड़ता। झुग्गियों में ही रहती मेरी बहन बना देती है और मैं उसे महीने में खुराकी के 300-350 रुपये दे देता हूँ। यह भी शुक्र है कि पीने के पानी का एक डिब्बा पड़ोसी रोज भर देते हैं। नहाने-धोने के लिये 3-4 ड्रम मैं हफ्ते में एक दिन भरता हूँ।

रात को 9-10 बजे भोजन करता हूँ और 11 बजे तक सो जाता हूँ।

चिन्ता-चिन्तन

अपने लिये समय कहाँ मिलता है। सारा टाइम तो खत्म हो गया — सुबह साढे पाँच से रात ग्यारह!

परिवार गाँव में है। साल हो गया पत्नी और बच्चों से मिले। महीने में 800-1000 रुपये घर भेजता हूँ। थोड़ी खेती भी तो है।

दिमाग में ज्यादातर पीछे की बातें आती रहती हैं। पहले पैसे अधिक कमा रहा था और खर्चे कम थे जबकि अब खर्चे बढ गये हैं और कमाई कम हो गई है। मजदूर तो बन ही गया हूँ, अब आगे पता नहीं क्या होगा। सिले-कढे वस्त्रों के निर्यात की लाइन में अभी कारीगरों को तनखा समय पर मिल जाती है। लेकिन सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन भी कम्पनियाँ नहीं देती और नौकरी से निकाले जाने तथा फिर लग जाने का तो अटूट-सा सिलसिला चल पड़ा है।

चौतरफा मजबूरी ही मजबूरी हैं ऐसे में अच्छा भला क्या लगेगा? मन तो बहुत-कुछ को करता है परन्तु मन माफिक तो कुछ होता नहीं। बुजुर्गों को दो पैसे के लिये धक्के खाते देखता हूँ तो मन को बहुत बुरा लगता है। ऐसे लगता है कि जिन्दगी बस एक टाइम पास बन गई है … आज रविवार की छुट्टी के दिन भी फैक्ट्री में काम करके आया हूँ।(जारी)

(मजदूर समाचार, जुलाई 2003)

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