पहचान और पहचान की जटिलतायें (3)

जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। उनतालिसवाँ अंश, अप्रैल 2009 अंक से है।

“मैं” का उदय – “मैं कौन हूँ ?” – एक “मैं” में कई “मैं”- और “मैं” के पार

◆ इकाई और समूह-समुदाय के बीच अनेक प्रकार के सम्बन्ध समस्त जीव योनियों में हैं। मानव योनि में भी दीर्घकाल तक ऐसा ही था। चन्द हजार वर्ष पूर्व ही पृथ्वी के छिटपुट क्षेत्रों में मानवों के बीच “मैं” का उदय हुआ। मनुष्यों के प्रयासों के बावजूद अन्य जीव योनियों के समूह-समुदाय में इकाई ने “मैं” के पथ पर प्रगति नहीं की है।

◆ एक जीव योनि के एक समूह-समुदाय की इकाईयों में तालमेल सामान्य हैं पर जब-तब खटपटें भी होती हैं। एक जीव योनि के एक समूह-समुदाय के उस योनि के अन्य समूह-समुदायों के संग आमतौर पर सम्बन्ध मेल-मिलाप के होते हैं पर जब-तब खटपटें भी होती हैं। आपस की खटपटें घातक नहीं हों यह किसी भी योनि के अस्तित्व के आधारों में है। इसलिये प्रत्येक जीव योनि में यह रचा-बसा है। एक जीव योनि के अन्दर की लड़ाई में किसी की मृत्यु अपवाद है। मानव योनि के अस्तित्व के 95 प्रतिशत काल में ऐसा ही रहा है। इधर मनुष्य द्वारा मनुष्य की हत्या, मनुष्यों द्वारा मनुष्यों की हत्यायें मानव योनि को समस्त जीव योनियों से अलग करती हैं।

◆ अपनी गतिविधियों के एक हिस्से को भौतिक, कौशल, ज्ञान रूपों में संचित करना जीव योनियों में सामान्य क्रियायें हैं। बने रहने, विस्तार, बेहतर जीवन के लिये ऐसे संचय जीवों में व्यापक स्तर पर दिखते हैं। प्रत्येक जीव योनि में पीढी में, पीढियों के बीच सम्बन्ध इन से सुगन्धित होते हैं। मानव योनि में भी चन्द हजार वर्ष पूर्व तक ऐसा ही था। इधर विनाश के लिये, कटुता के लिये, बदतर जीवन के लिये भौतिक, कौशल, ज्ञान रूपों में संचय के पहाड़ विकसित करती मानव योनि स्वयं को समस्त जीव योनियों से अलग करती है।

कीड़ा-पशु-जंगली-असभ्य बनाम सभ्य को नये सिरे से जाँचने की आवश्यकता है।

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लगता है कि निकट भविष्य में पहचान की राजनीति का ताण्डव बहुत बढेगा। मानव एकता और बन्धुत्व की सद्इच्छायें विनाश लीला को रोकने में अक्षम तो रही ही हैं, अक्सर ये इस अथवा उस पहचान की राजनीति का औजार-हथियार बनी हैं। हम में से प्रत्येक में बहुत गहरे से हूक-सी उठती हैं जिनका दोहन-शोषण सिर-माथों पर बैठे अथवा बैठने को आतुर व्यक्ति-विशेष द्वारा किया जाना अब छोटी बात बन गया है। सामाजिक जीवन के अन्य क्षेत्रों की ही तरह पहचान की राजनीति में भी संस्थायें हावी हो गई हैं। संस्थाओं के साधनों और पेशेवर तरीकों से पार पाने के प्रयासों में एक योगदान के लिये हम यह चर्चा आरम्भ कर रहे हैं।

अंश द्वारा सम्पूर्ण पर आधिपत्य के प्रयास सभ्यता की जंजीरों का गठन करते हैं। पृथ्वी सौर मंडल का एक सामान्य ग्रह है और सूर्य ब्रह्मांड में एक आम तारा … अपने अस्तित्व के 95 प्रतिशत दौर में मानव योनि का व्यवहार प्रकृति के एक अंश वाला रहा है। परन्तु इन पाँच-सात हजार वर्ष के दौरान स्वयं के प्रकृति का एक अंश होने की वास्तविकता को मानव योनि अधिकाधिक नकारती आई है। नियन्त्रण, नियन्त्रण-दर-नियन्त्रण हमारी हवस बनती गई है। अपनी इंद्रियों पर नियन्त्रण, अपने आप पर नियन्त्रण एक छोर बना है तो “अन्य’ सबकुछ पर जकड़ दूसरा छोर।

— हालाँकि मानव योनि का नियन्त्रण आसमान पार कर रहा है, नाथना शब्द आज प्रचलन में नहीं है। नाथना मानी नियन्त्रण में करना …

बैल की नाक छेद कर उसमें से रस्सी पार करने को भी नाथना कहते हैं। और, बैल के नाक की रस्सी को नाथ कहते हैं। कन्द-मूल बटोरने और शिकार की अवस्थाओं में हमारे पुरखों का व्यवहार मुख्यतः प्रकृति के एक अंश वाला था। पशुओं को नाथने ने बहुत कुछ बदलना आरम्भ किया।

बैल को नाथना। गाय का शोषण। यह पशुओं पर ही नहीं रुका। पशुओं के नाथ, दासों के स्वामी बने। और, पति के पर्याय हैं स्वामी तथा नाथ …

— प्रकृति में एक स्त्री की यौन-सम्बन्धी क्षमता कई पुरुषों के बराबर है। एक पुरुष एक स्त्री की भी यौन सन्तुष्टि नहीं कर सकता … इसलिये नाथना।

स्त्री और पुरुष के बीच सतत द्वन्द्व की स्थिति बनी। शक-शंका-क्रूरता की कोई सीमा नहीं रही। और तिरिया-चरित्तर के किस्से। आज पितृत्व निर्धारण के लिये डी एन ए परीक्षण …

यह तो शस्त्र के साथ शास्त्र की जुगलबन्दी रही कि नाथ-नथनी-नथनिया स्त्री का आभूषण बनी। और यही बात टूम-जेवर-गहनों में कड़ी-गोड़हरा वाली बेड़ी की।

पुरुषों को दोष देना आसान है। परन्तु यह उस प्रक्रिया को छिपा देना है जिसने अकस्मात् प्रारम्भ में पुरुष को “मैं” का वाहक वाहन बना दिया था। और, यह “मैं” की पीड़ा का ही कमाल रहा है कि एक पुरुष ने कई स्त्रियाँ-पत्नियाँ रखी।

● समुदायों की टूटन ने तत्काल समुदायहीनता को जन्म नहीं दिया। समुदायों की टूटन अनेक प्रकार के विकृत समुदायों का सिलसिला लिये रही है। ऐसे में “मैं’ के वाहक पुरुष की पीड़ा को कुछ हद तक विकृत समुदाय कम करते रहे हैं। परन्तु मण्डी-मुद्रा और मजदूरी-प्रथा के संग समुदायहीनता, अकेलापन छलाँगे लगाते आते हैं …

— विकृत से विकृत समुदाय भी व्यक्ति को कुछ सहारे प्रदान करते हैं। जबकि मण्डी-मुद्रा और विशेषकर मजदूरी-प्रथा पूर्णतः बेसहारा व्यक्ति की माँग करते हैं। ऐसे में पहचान की एक राजनीति ने नये गुल खिलाये। नारी के साथ भेदभाव, दुराचार, क्रूरता के तथ्यों को आधार बना कर विकृत समुदायों द्वारा प्रदत सहारों पर आक्रमणों का सिलसिला। मण्डी की बढती शक्ति के सम्मुख पुरुष की यह बढती कमजोरी है जो स्त्रियों को भी मजदूर बनने को मजबूर कर रही है। पहचान की एक राजनीति इस वास्तविकता पर पर्दा डाल कर इसे स्त्री-सशक्तीकरण प्रस्तुत करती है। नारी के मजदूर बनने को मुक्ति की राह पर कदम देखना-दिखाना …

— व्यक्ति को अपनी सामाजिक संरचना की इकाई बनाने को अग्रसर मण्डी-मुद्रा, मजदूरी-प्रथा के लिये विकृत समुदाय भी बाधा हैं। इसलिये अनेक प्रकार की पहचान की राजनीतियों के जरिये विकृत समुदायों का इस्तेमाल करती मण्डी-मुद्रा और मजदूरी-प्रथा विकृत समुदायों पर आक्रमण भी जारी रखे हैं। यह व्यक्ति को इकाई बनाना है जिसने नारी को भी मजदूर बना कर “मैं” के वाहक वाहन में बदल दिया है।

● व्यक्ति के इकाई बनने के संग मानव योनि में सार्विक होता “मैं” सामान्य सम्बन्धों के लिये स्थान लीलता जाता है। पुरुष का “मैं” अपने वंश के प्रसार में अपनी पीड़ा कम करने के स्वप्न देखता था। इधर पुरुष के “मैं” के संग आन खड़ा स्त्री का “मैं” वंश के प्रचलन में “मैं” के बने रहने के भ्रम को समाप्त करता है। “बच्चे नहीं चाहियें” का एक कारण यह भी है। इसलिये आज जन्म के पश्चात मृत्यु की निश्चितता “मैं” को अधिकाधिक पगला रही है। इस सन्दर्भ में यौन सम्बन्धों को देखें। एक सहज, आनन्ददायक क्रिया के स्थान पर यह एकमेव (अंग्रेजी में THE) सम्बन्ध बन गया है। स्त्री हो चाहे पुरुष, सम्भोग की भूख हर समय बनी रहती है और अनेक प्रकार के सौदागर इसे भुनाते हैं। ऐसे में पीड़ा से एक राहत के स्थान पर यौन सम्बन्ध मनोरोगी पीड़ा का एक कारक बन गये हैं।

स्त्री हो चाहे पुरुष, बढता अकेलापन हम सब के सम्मुख मुँह बाये खड़ा है। इस सिलसिले में “मैं कौन हूँ?” पर चर्चा आगे करेंगे और अपने अंश होने के तथ्य को ध्यान में रखेंगे। (जारी)

       (मजदूर समाचार, अप्रैल 2009)

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