जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। इक्यावनवाँ अंश जुलाई 2009 अंक से है।
● बांग्लादेश में फिर मजदूरों का गुस्सा फूट पड़ा। बांग्लादेश के मध्य क्षेत्र में एक कारखाने में बकाया तनखा, वेतन वृद्धि और नौकरी पर बहाली के विवाद ने 27 जून को हिंसक रूप ले लिया। कुछ साहबों की पिटाई हुई। पुलिस ने मजदूरों की भीड़ को तितर-बितर करने के लिये आँसू गैस के गोले छोड़े। मजदूरों ने राष्ट्रीय राजमार्ग बन्द कर दिया। पुलिस के सहायक बल (अन्सार) ने गोलियाँ चलाई। एक मजदूर की मृत्यु। कई फैक्ट्रियों के मजदूर सड़कों पर निकल आये। कुछ मैनेजमेन्टों ने डर से जल्दी छुट्टी कर दी। जहाँ से यह विवाद शुरू हुआ था उस कारखाने को मजदूरों ने आग लगा दी। मजदूर की हत्या के विरोध में 28 जून को बांग्लादेश में जगह-जगह प्रदर्शन हुये। और फिर 29 जून को मजदूरों के गुस्से का विस्फोट हुआ। राजधानी ढाका के औद्योगिक क्षेत्र में मजदूरों और पुलिस के बीच तीखी झड़पें हुई। आक्रोश से भरे मजदूरों की संँख्या पचास हजार हुई तो कारखानों की सुरक्षा के लिये बुलाये गये अतिरिक्त 400 पुलिस वाले भी एक तरफ हट गये। ढाका क्षेत्र में अधिकतर मजदूर सड़कों पर थे लेकिन कुछ फैक्ट्रियों में काम जारी था। वे फैक्ट्रियाँ मजदूरों के आक्रमण का निशाना बनी और पचास कारखानों में आग लगा दी गई। सरकार ने खुंँखार विशेष दस्तों को भेज कर मजदूरों के इस असन्तोष पर काबू पाया। (जानकारियाँ रॅट मारुट के इन्टरनेट पर लेख से <www.libcom.org>)
● जून माह में ही भारत में किसानों और दस्तकारों पर एक उल्लेखनीय क्षेत्र में सरकार ने हमला बोला। आठ महीने से पश्चिम बंगाल के लालगढ क्षेत्र में 30 गाँवों के गरीबों ने सरकार को ही नकार रखा था। इससे तिलमिलाई सत्ता ने सशस्त्र राज्य पुलिस, केन्द्र की सी आर पी एफ तथा बी एस एफ और विशेष दस्तों का गठजोड़ बनाया। और वायुसेना के गनों से लैस हैलीकोप्टरों की सहायता से लालगढ क्षेत्र में दस्तकारों-किसानों पर आक्रमण।
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● बद से बदतर होते हालात में उथल-पुथल, बढती उथल-पुथल स्वाभाविक है। समाज में यह पाँच-सात हजार वर्ष से हो रहा है। पृथ्वी के छिटपुट क्षेत्रों से आरम्भ हुई यह प्रक्रिया इन पाँच सौ वर्ष में अधिकाधिक विश्व-व्यापी बनती आई है।
हिंसा और प्रतिहिंसा, जायज हिंसा और नाजायज हिंसा, शान्ति और अहिंसा के आवरण में बढती हिंसा के चक्रव्यूह में हम फँसे हैं। इससे एक व्यक्ति पचास व्यक्तित्वों में विभाजित होने को अभिशप्त है। आज प्रत्येक अपने तन व मन को काटने में लगा है। हर कोई अपने इर्द-गिर्द वालों को लहुलुहान करने में लगी है। पीड़ा के पहाड़ हर व्यक्ति को बम में बदल रहे हैं। इन दो सौ वर्षों में चक्रव्यूह के कसने की गति तीव्रतर और मारक क्षमता अधिकाधिक घातक होती आई है।
सम्पूर्ण विनाश की ओर हम सब धकेले जा रहे हैं, हम स्वयं को इस दिशा में धकेल रहे हैं। इसलिये आईये चक्रव्यूह की काट के लिये मन्थन बढायें, आदान-प्रदान बढायें।
● व्यक्ति का स्वयं से हर समय पाला पड़ता है। व्यक्ति के अन्य व्यक्तियों से अनेकानेक प्रकार के सम्बन्ध सामान्य बात हैं। ऐसे में बद से बदतर होते हालात में स्वयं को दोष देना, अन्य व्यक्तियों को दोष देना स्वाभाविक है। परन्तु यह तो पीड़ित को, पीड़ितों को ही दोषी ठहराना है।
मेहनतकश तो दमन-शोषण का शिकार रहे ही हैं। परन्तु , ढाई हजार वर्ष पूर्व राजकुमार सिद्धार्थ भी भिक्षु गौतम बना था। और, सम्राट चन्द्रगुप्त हर रात को कमरा बदल कर सोता था। आज मैनेजरों का नौकरी से निकाले जाना, चेयरमैन-मैनेजिंग डायरेक्टरों का जेल जाना सामान्य बात होती जा रही है।
पद पर बैठे व्यक्ति बदलते रहते हैं। पद बने रहते हैं — समस्या पद हैं। इस-उस को थानेदार बनाना अथवा थानेदारों को बदलने में जुटना उलझते जाना है। थानेदारी को ही निशाने पर लाना बनता है। यह मेहनतकशों की मुक्ति के संग चन्द्रगुप्तों के लिये भी चैन की नींद के द्वार खोलेगा … और सिद्धार्थ भी भिक्षु नहीं बनेंगे, जीवन शाप नहीं रहेगा इसलिये जीवन से मुक्ति-मोक्ष की कामना नहीं रहेगी।
हमारे विचार से सामाजिक सम्बन्धों पर, सामाजिक प्रक्रिया पर ध्यान केन्द्रित करना और पीड़ित-सहपीड़ित के आधार पर आचार-विचार चक्रव्यूह में दरारें डालेंगे।
● राजा-बादशाह की फौज में एक हजार सैनिक स्थाई तौर पर होना बड़ी बात थी। महल-किले वाले सम्राट भूदासों-किसानों-दस्तकारों द्वारा की जाती उपज का छठा हिस्सा सामान्य तौर पर लेते थे। भाप-कोयला आधारित कारखानों में मजदूरों द्वारा किये जाते उत्पादन का आधा हिस्सा हड़पे जाने ने सरकारों को 50 हजार की स्थाई फौज रखने की क्षमता दी। सन् 1890 में एक सरकार द्वारा एक लाख की स्थाई फौज बनाने के समाचार ने संसार में तहलका मचा दिया था। इधर पैट्रोल-डीजल, बिजली, इलेक्ट्रोनिक्स के दौर में मजदूर जो उत्पादन करते हैं उसका अठानवे प्रतिशत हड़पा जा रहा है। पृथ्वी के संग अन्तरिक्ष तक का सैन्यीकरण …
● आज जो किया जा रहा है उसका 95-98 प्रतिशत अनावश्यक, नुकसानदायक और खतरनाक है। पृथ्वी, अन्य जीव योनियों, स्वयं मानवों का दोहन-शोषण हमें इस हद तक ले आया है। यह परिणाम है सब के, सब कुछ के दोहन-शोषण पर आधारित “अच्छे जीवन” का — सभ्यता, प्रगति और विकास का। पशुओं को दुहने के लिये नाथने से आरम्भ हुआ, दासों को दागने से होता, धरती को चीरती कृषि की राह ऊँच-नीच वाला ताना-बाना फैक्ट्री-पद्धति तक पहुंँचा है। तीव्रतर गति, अधिकाधिक चमक-दमक, बढती मात्रा में उत्पादन … यह पैमाने हैं वर्तमान में “अच्छे जीवन” के। “अच्छा जीवन” जिसमें बढती संँख्या में लोग फालतू आबादी में, कूड़ा-करकट में बदले जा रहे हैं। “अच्छा जीवन” जिसके दायरे में बने रहने की शर्त तन को ताने रखना और मन को मारते जाना है। “अच्छा जीवन” जिसके दायरे में बना रहना है तो व्यक्ति को अपने स्वयं के लिये भी समय नहीं रखना …
इसलिये उथल-पुथल का स्वागत है। उथल-पुथल अन्य तरीकों से जीवन जीने के बारे में सोचने के अवसर प्रदान करती हैं। उथल-पुथल जीवन की नई पद्धति की सम्भावनायें बढ़ाती हैं।
नुकसानदायक और खतरनाक कार्य को बन्द करना कैसा रहेगा? खटने के समय के घटने से कैसा लगेगा? रेल बनों को मिली फुर्सत क्या गुल खिलायेगी? कार्य का अड़तालिसवें-उन्नचासवें हिस्से में सिकुड़ जाना हवा-पानी-मिट्टी तक की सेहत में तत्काल सुधार लायेगा!
उथल-पुथल को प्रोत्साहित करने के लिये शुरुआत स्वयं से भी कर सकते हैं। तन को खींचने की बजाय आईये शरीर की सुनें और आराम के लिये मौके ढूँढें-बनायें। मन को मारने की जगह मन की सुनें। अपने आप के साथ सहज होना दूसरों के साथ सम्बन्धों के लिये पुख्ता आधार प्रदान करता है। हर सम्बन्ध को समय की आवश्यकता है। समय होने से, समय प्राप्त करने से प्यार, लगाव, आदर, सम्मान वाले रिश्तों की सम्भावनायें बनती हैं, बढती हैं। और, ऐसे सम्बन्ध उथल-पुथल को नये धरातल पर ले जा सकते हैं।
दस्तकारों, किसानों, दुकानदारों की सामाजिक मौत और सामाजिक हत्या उथल-पुथल को बढाती जायेंगी। मजदूरों का तीव्रतर शोषण और बढती अनिश्चितता-असुरक्षा विश्व-भर में उथल-पुथल बढाती जायेंगी। नई समाज रचना के लिये उथल-पुथल आवश्यक हैं, स्वागतयोग्य हैं।