गण-कबीला-ट्राइब-क्लैन को सामाजिक संगठन का एक स्वरूप कहा जाता है। मिलते-जुलते रूप में यह मनुष्यों के बीच विश्व-भर में रहे हैं। काफी क्षेत्रों में, बड़ी आबादियों में इनका उल्लेखनीय प्रभाव आज भी देखा जा सकता है।
गण को रक्त-सम्बन्ध से जोड़ा गया। स्त्री और पुरुष के यौन सम्बन्ध कहीं गण के अन्दर ही तो कहीं गण के बाहर ही मान्य रहे। कहीं-कहीं गण के अन्दर और गण के बाहर, दोनों प्रकार के सम्बन्ध सामान्य रहे। हावी-प्रभावी जो बना वह गण के अन्दर ही सम्बन्ध था। किसी को गण में सम्मिलित करने के अनेक तरीके रहे हैं। और, किसी को गण से बाहर करना बहुत बड़ी सजा।
गण के अन्दर और भी गठन हुये जिनमें गोत्र की महत्ती भूमिका रही है। गोत्र को निकट रक्त-सम्बन्ध माना गया और पिता का गोत्र बच्चों का गोत्र बना। वैसे, अगर रक्त की बात करनी ही है तो बच्चों में रक्त माँ के गर्भ में ही बनता है। गण के अन्दर परन्तु गोत्र के बाहर विवाह की प्रथा स्थापित हुई। एक गोत्र वालों के बीच रिश्ते दादा-पिता-बुआ-भाई-बहन-पुत्री-पुत्र वाले। एक गोत्र के लोगों की संँख्या लाखों में होने, दूर-दराज फैले होने पर भी गोत्र वाले नर और नारी के बीच शादी नहीं। सगोत्र विवाह अमान्य। विवाह के बाहर यौन सम्बन्ध अमान्य।
जटिलतायें अनेक हैं और काफी कुछ बदला है पर फिर भी विश्व-भर में विवाह की गण-गोत्र व्यवस्था आज भी उल्लेखनीय है।
आईये अब बात भारतीय उपमहाद्वीप की करें। यहाँ आज भी गण-गोत्र का बोलबाला विवाहों में साफ-साफ देखा जा सकता है। और लगता है कि गणों की पर्यायवाची जातियाँ हैं। गण और जाति शब्द एक ही सामाजिक गठन के लिये …
गण और वर्ण उच्चारण में निकट लगते हैं परन्तु वास्तव में इनके अर्थ बहुत भिन्न हैं। वर्ण चार हैं और इन्हें अनेक नियमों-उपनियमों के जरिये स्थापित करने के प्रयास हुये। जबकि, गण-जाति उपमहाद्वीप में ही हजारों की संँख्या में हैं। फिर भी, चर्चाओं में अकसर वर्ण और जाति को गड्डमड्ड कर दिया जाता है। आज यहाँ प्रभु वर्ग की मुख्य भाषा, अंँग्रेजी में “कास्ट” शब्द का प्रयोग जाति और वर्ण, दोनों के लिये किया जाता है। यह गण-जाति तथा वर्ण के अर्थों को और उलझा देता है।
वर्ण को स्थापित करने के प्रयास समाज में ऊँच-नीच पैदा होने के उपरान्त हुये। वर्ण का अस्तित्व चन्द हजार वर्ष से अधिक का नहीं है। जबकि, गण-जाति रूपि गठन वर्ण के, ऊँच-नीच के अस्तित्व में आने से हजारों वर्ष पहले के हैं।
आईये अब एक नजर गण-जाति पर समाज में हुये, हो रहे व्यापक परिवर्तनों के सन्दर्भ में डालें। बात थोड़ा पहले से आरम्भ करते हैं।
दीर्घकाल तक गण-जाति मौज-मस्ती की अवस्था में रही। उल्लास का बोलबाला रहा। प्रकृति द्वारा उपलब्ध कन्द-मूल भोजन के मुख्य स्रोत थे। पूरक के तौर पर छिटपुट शिकार। समय के साथ कुछ क्षेत्रों में विभिन्न कारणों से इस-उस प्रकार की विशेषता प्राप्त करने की दिशा में कदम बढे। कोई गण मछली पकड़ने में विशेषज्ञ बने तो किन्हीं गणों ने मिट्टी से खेलने में महारत हासिल की। गण-जाति को धन्धे-पेशे से जोड़ने के बीज पड़े। और, भारतीय उपमहाद्वीप में तो गण-जाति को धन्धे-पेशे से जोड़ने वाले यह बीज विराट वृक्ष बने। गण-जाति की जड़ों को धन्धे-पेशे के इस आवरण ने ढंँक दिया। गण-जाति और धन्धे-पेशे एक-दूसरे से जुड़े हुये पेश होने लगे। वैसे, एक ही पेशे में, एक ही धन्धे में अनेक गण-जाति, कई गण-जाति रहे। किसान जातियाँ …
समाज में होते व्यापक परिवर्तनों के संग धन्धों के महत्व बदलते रहे हैं। कल जो बहुत महत्वपूर्ण थे, आज वे गौण हो गये। उत्तम खेती और अधम नौकरी-चाकरी उलट-पलट गये हैं। एक समय किसी गण-जाति से जुड़ा जो पेशा-धन्धा श्रेष्ठ कहा जाता था वह अन्य समय में अधम की श्रेणी में आ गया।
और अन्त में, कुछ बात ऊँच-नीच की। ऊँच-नीच का सम्बन्ध वर्ण से है। समाज में स्वामी और दास बनने-बनाने के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप में वर्ण व्यवस्था की रचना द्वारा ऊँच-नीच को संस्थागत रूप देने के प्रयास हुये। हजारों गण-जाति ऊँच-नीच वाले चार खानों में फिट किये गये। कई गण-जाति जो इन चार खानों में से निचले में ठूँसे नहीं जा सके वो “बाहर-अन्य-दूसरे” करार दिये गये। परिवर्तन-आवश्यकता “बाहर” वालों को “अन्दर” लाये और शक्ति-सत्ता ने गण-जाति की वर्ण-श्रेणी में कई उलट-फेर किये। शुद्र शिवाजी का राजतिलक करने से इनकार … सत्ता ने मराठों को शुद्र से क्षत्रिय की श्रेणी में पहुँचाया।
एक गण-जाति में अनेक प्रकार के विभाजनों द्वारा “नये” गण-जाति अस्तित्व में आते रहे। हिन्दू मनिहार और मुसलमान मनिहार, खटीक और बकरे काटने वाले खटीक। कह सकते हैं कि स्थान बदलने से, धर्म परिवर्तन से, नये धन्धे-पेशे अपनाने से गण-जाति वाले सामाजिक गठन में कुछ परिवर्तन तो आये ही परन्तु गण-गोत्र की जड़ पर चोट नहीं पड़ी। इधर व्यक्ति को इकाई बनाना विगत के सम्बन्धों के तानों-बानों पर प्रहार है, गण-जाति की जड़ पर भी चोट लगता है।
इच्छा-अनिच्छा से परे नये लोगों के संग आना सामान्य बनता जा रहा है। अकेलेपन, नये प्रकार के अकेलेपन ने पीड़ा में भारी वृद्धि की है। नये मेल-मिलापों के लिये तड़प और प्रयास बढ रहे हैं। नये समुदायों के उदय की वेला है।
— (मजदूर समाचार, अक्टूबर 2008)