●”तर्कशील” व्हाट्सएप समूह में “मजदूर बिगुल” से जुड़े श्री अजय द्वारा 7 जून 2021 को डाले “मजदूर बिगुल” के श्री अरविन्द के लेख में हैं :
” … उद्योग और वाणिज्य में लगे श्रमिकों के मामले में तो श्रम कानून काफी हद तक सुपरिभाषित होते हैं और वह इन्हें आधार बना कर कानूनी तौर पर लड़ भी सकते हैं लेकिन कृषि क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों को ज्यादातर मामलों में धनी किसानों और कुलकों के रहमो-करम पर ही रहना पड़ता है। … ऐसे में हम माँग करते हैं कि केन्द्र और राज्य सरकारों को 20,000 रुपये मासिक या 777 रुपये दैनिक के हिसाब से प्रति एकड़ मजदूरी तय करनी चाहिये ताकि कोई झगड़े का मसला ही नहीं रहे। …”
## 1982 में आरम्भ किया मासिक फरीदाबाद मजदूर समाचार नोएडा, ओखला औद्योगिक क्षेत्र दिल्ली, उद्योग विहार गुड़गाँव, आई.एम.टी. मानेसर, और फरीदाबाद में फैक्ट्री मजदूरों के बीच फरवरी 2020 तक प्रसारित हुआ है। हमारा आंकलन है :
1. कानूनों का उल्लंघन सामान्य है और कानूनों का पालन अपवाद है। लगता है कि कानून का राज की यह स्थिति मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन के नाकारा हो जाने की एक अभिव्यक्ति है।
2. सन् 2000 के पश्चात फैक्ट्रियों में उत्पादन का अधिकतर कार्य टेम्परेरी वरकर करते हैं। आज फैक्ट्रियों में अस्सी से पिचानवे प्रतिशत मजदूर अस्थाई हैं, ठेकेदार कम्पनियों के जरिये रखे जाते हैं अथवा छह महीने में ब्रेक वाले हैं।
3. संविधान के तहत बुनियादी श्रम कानून, औद्योगिक विवाद अधिनियम के अनुसार आज फैक्ट्रियों में काम करते नब्बे प्रतिशत वरकर “मजदूर” ही नहीं हैं, “वर्कमैन” ही नहीं हैं। मुख्य श्रम कानून के अनुसार फैक्ट्रियों में अधिकतर मजदूरों के कोई अधिकार नहीं हैं।
4. आज अधिकतर फैक्ट्री मजदूरों के लिये माँग और समझौता वार्ताओं का कोई मतलब नहीं है। इन दस वर्षों में तो “बिना माँग वाली”, “बिना समझौता वार्ताओं वाली” मजदूर हलचलों ने दिल्ली और इर्दगिर्द के औद्योगिक क्षेत्रों, बेंगलुरु, बांग्लादेश में फैक्ट्री मैनेजमेन्टों और सरकारों को हक्का-बक्का कर रखा है। “मजदूर चाहते क्या हैं?” — यह साहब लोगों के लिये अबूझ पहेली बनी है।
और, मजदूर समाचार का अनुमान है कि कोई भी मजदूर होना ही नहीं चाहती। कोई भी मजदूर रहना ही नहीं चाहता। यह मजदूरी-प्रथा की समाप्ति का समय लगता है। यह ऊँच-नीच के उन्मूलन की पूर्व वेला लगती है।
7 जून 2021, मजदूर समाचार