## मृत्यु-भय जीवन को सिकोड़ता है। व्यापक स्तर पर मृत्यु-भय सामाजिक मनोरोगों की एक अभिव्यक्ति लगता है।
## सहज-सामान्य मृत्यु की स्वीकार्यता जीवन का विस्तार लिये लगती है। मानव प्रजाति में मृत्यु की स्वीकार्यता के लिये पीढियों के बीच सहज सम्बन्ध एक अनिवार्य आवश्यकता लगते हैं। हमारे पूर्वजों के आदिम साम्यवादी गठन के चरण में मृत्यु की स्वीकार्यता के आरम्भिक स्वरूप की झलक दिखती है।
## विभाजित समाज में मानव प्रजाति के सामाजिक गठनों में उन स्वरूपों के दर्शन होते हैं जिनमें मृत्यु की स्वीकार्यता तक नहीं। ऊँच-नीच वाले, पिरामिडनुमा सामाजिक गठनों में मृत्यु की अस्वीकार्यता निहित है, अन्तर्निहित है।
वैसे :
* सहज और सामान्य कोई स्वयंसिद्ध नहीं हैं। इनके अर्थ बदलते आये हैं।
* अकाल के अर्थ बदलते आये हैं।
* मृत्यु के अर्थ बदलते आये हैं।
## तन जब तक मन के पूरक की भूमिका निभाने की स्थिति में है तब तक जीवन को सहज-सामान्य कह सकते हैं। उस अवधि में मृत्यु अकाल मृत्यु।
वर्तमान में अकाल मृत्यु के कुछ कारण :
* गति का उत्पादन और उपभोग।
* चमक-दमक का उत्पादन और उपभोग।
* सिर-माथों के पिरामिडों में ऊपर बने रहने के प्रयास। ऊपर चढने के लिये स्वयं के तन और मन को मारते रहना, मारते ही रहना। ऊपर चढने के लिये निकट वालों के, दूर वालों के, सब के तन-मन को लहुलुहान करते जाने की अनन्त प्रक्रिया में रहना।
## मृत्यु की स्वीकार्यता के लिये नई समाज रचना एक अनिवार्य आवश्यकता लगती है।
## अकाल मृत्यु को अपवाद बनाने के लिये मानव प्रजाति द्वारा “गैर-बराबरी बिना” वाला सामाजिक गठन हमें बनाना ही होगा।
+++++ जोड़ें। तोड़ें। खेलें। +++++
— 29 अप्रैल 2021