# कई वर्ष पहले स्लोटरजिक की पुस्तक “क्रिटीक ऑफ सिनिकल रीजन” Critique of Cynical Reason पढी थी। पुस्तक में 1920 के दशक में जर्मनी में हिटलर/नाजीवाद के उदय तथा विस्तार का एक अध्ययन था। उसे एक प्रस्थान-बिन्दु बना कर, सामाजिक मन्थन में एक योगदान के तौर पर, “जानते हुये गलत करना” के कुछ बिन्दु तैयार कर रहे थे। अटक गये …
# एक बहन की 22 मई को साँय मृत्यु पर 23 को सुबह नातेदारों-रिश्तेदारों और अपने गाँव के कुछ लोगों को व्हाट्सएप भेजा :
●बहन राज कौर●
1947 में जन्मी राज कौर मुझ से तीन साल बड़ी थी। टाब्बर था तब कचौला-थाली बजा कर बहलाती थी।
बहन राज कौर की 1972-73 की छवि मेरे मन में गहरी छपी है। तब मद्रास में पढता था और बहनों से मिलने गढी गया उस समय राज कौर घर पर नहीं थी। लामणी का समय था। खेत पहुँचने पर बाजरा काटती राज कौर पसीने और गर्दे में तरबतर मिली थी।
मजबूत शरीर की राज कौर का कुछ समय से स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता था। दादी-नानी बनी राज कौर की घर पर बहुत अच्छी देखभाल हुई।
कल साँय राज कौर ने अन्तिम साँसें ली।
# 25 मई को कोलकाता में बांग्ला पत्रिका “मजदूर मुक्ति” के सम्पादक गौतम सेन की 73 वर्ष की आयु में मृत्यु की सूचना मिली। सामाजिक मन्थन में एक आहुति के तौर पर 27 मई को 1986-96 के स्मृति में चलचित्र के अंश प्रसारित किये।
# फरीदाबाद में “इन्कलाबी मजदूर केन्द्र” ने नरेश को संगठन से निष्कासित किया। मजदूर समाचार सम्पर्क में रहा है नरेश के। इधर टैक्सी चलाने लगे नरेश ने 28 मई को हरियाणा के हिसार जिले में हाँसी से दस किलोमीटर पहले मेरी बहनों की ससुराल, गढी गाँव पहुँचाया। पुस्तक “सतरंगी” की पचास प्रतियाँ भी हिसार तथा भिवानी जिलों के लिये ले जाना सहज रहा।
# पहली बार गढी में रहने के लिये मेरे पास समय ही समय था। बड़ी बहन किताब कौर और परिवार के साथ दो जून तक रहने का किया है।
— 28 मई को सुबह-सुबह बहन के पोते मनदीप के साथ आधा घण्टा घूमने गया। तन-मन प्रफुल्ल! अगले दिन मनदीप ने घूमने के समय वीडियो भी बनाई।
— एक भाँजे ने बताया कि वो अपनी माँ की मृत्यु पर उत्सव मनाते पर नातेदारी में एक अकाल मौत के कारण ऐसा नहीं कर रहे थे। मृत्यु का अस्वीकार आज सामाजिक मनोरोग के उस स्तर पर पहुँच गया है कि वृद्धावस्था में अस्पतालों में वृद्धों की दुर्दशा धन्धे का हिस्सा बन गई है। ऐसे में भाँजे की यह बात सुन कर बहुत अच्छा लगा।
— रिश्तेदारों का काण कराने आना सामान्य था और रुकने का समय कम। गाँव के स्त्री-पुरुषों का आना सामान्य। कुणबे के लोगों का बैठना और बातें करना नियमित था। जिनके बच्चों की नौकरी नहीं लगी वही परिवार किसानी में थे। ऐसे परिवार इन बीस वर्षों के दौरान तो बहुत तेजी से घटते आये लगते हैं। बहुत प्रयासों के बावजूद बहन राज कौर के बेटों और फिर पोतों की नौकरी नहीं लगने ने उन्हें किसान बनाये रखा है।
— 28-29-30 मई को कुछ किसानों की बहुत बातें सुनी। नौकरी कर रहे और नौकरी ढूँढ़ रहे बैठते रहे पर बातें किसानी जीवन की ही अधिक। “मैं/हम इक्कीस और तुम/वो उन्नीस” किसानी में जो बचे हैं और जो किसानी छोड़ चुके हैं, दोनों में व्यापक लगी। ऐसे किस्सों का, खिल्ली उड़ाने का मनोरंजन बन जाना बहुत पीड़ादायक लगा।
— खेती में बदलाव बहुत गति से हो रहे हैं। मेरे भाँजों ने बैलों से हल जोता है। भाँजों, उनकी पत्नियों, और बेटी-बेटों ने लामणी की, फसलें काटी और काढी हैं। लेकिन इधर कई वर्ष से पूरे गाँव में खेतों की जुताई-बुआई ट्रैक्टरों से हो रही है। और इधर तो कटाई-कढाई मशीनों से हो रही है। कम्बाइन गेहूँ को काट कर, दाने निकाल कर, ट्रैक्टर ट्राली में भरती है और ट्राली सीधे मण्डी को। गेहूँ और सरसों अब घर पर कम ही लाई जाती हैं। कपास चुनने में परिवार अब भी जुटता है और मजबूरी में जब-तब मजदूर भी लगाने पड़ते हैं। हाँ, गायों के हरियाणा से गायब होने और भैंसों की भरमार ने पशुओं से जुड़े काम बहुत बढा दिये हैं। ट्रैक्टर नहीं होने के कारण एक भाँजे ने एक बैल चारा आदि लाने के लिये रखा हुआ है और दूसरा स्कूटी पर चारा लाता है।
— पैदल चलना बहुत कम हो गया है। खेत में – गाँव में मोटरसाइकिल पर आना-जाना सामान्य। घरों में कारें दिखती हैं, अधिकतर नौकरी/खेती के अलावा धन्धे करने वालों की। गाँवों में घरों की बनावट में सम्पन्नता नजर आती है पर यह मेरा मनोगत भाव हो सकता है क्योंकि बचपन में गाँवों में विपन्नता के दर्शन हुये हैं। और, इधर गाँवों में युवाओं के बारे में तो पता नहीं पर अधेड़ लोग तो जैसे ही मुँह खोलते हैं, कड़वे बोल निकलते लगते हैं। रिश्तों में कड़वाहट बचपन में देखी यादों में है परन्तु लगता है कि इतना कड़वापन नहीं था।
— और हाँ, हल जोतने-फसल काटने जैसी मेहनत गायब हो जाने पर भी उनके लिये आवश्यक घी-दूध भोजन में जारी हैं। इस जारी रहने ने गाँवों में लोगों के पेट निकलने को उल्लेखनीय बना दिया है।
31 मई 2021, मजदूर समाचार