इन पैंतालिस वर्ष की बातें हैं, अधिकतर स्मृति से बातें हैं। अपना पक्ष इनमें होगा ही।
1975 में आन्तरिक आपातकाल के विरोध में पढाई छोड़ी। बिना तैरना जाने समुद्र में कूदने जैसी बात थी। असली विरोधी माओवादी-नक्सवादी वाली बात थी। आहिस्ता-आहिस्ता पता चला की सी.पी.आई (एम-एल) 32 गुटों में बँटी थी। बहसें भर्त्सना वाली थी। जब-तब दो-तीन ग्रुपों में एकता भी होती थी और विभाजनों का सिलसिला चलता रहता था। माओ की 1976 में मृत्यु ने और विभाजनों को जन्म दिया था।
सुरक्षा के दृष्टिगत परिवार से सम्बन्ध तोड़ना, नाम बदलना, गोपनीय ढँग से ज्ञान बाँटना।राजस्थान में श्रीगंगानगर के गाँव-गाँव घूमने के पश्चात राजस्थान-गुजरात सीमा पर भीलों और रैबारियों के बीच समय। लगा कुछ गड़बड़ है। तीन-चार महीने के अन्तराल से ग्रुप लीडर से मिलने दिल्ली आना।
दिल्ली में पढाई छोड़ी तब बिड़ला इन्सटीट्यूट पिलानी में साइन्स फैकल्टी में सहपाठी गोविन्द राम गुप्ता (सेठ) के पास अपनी पुस्तकें रख गया था। बजाज इन्टरनेशनल में नौकरी कर रहा गोविन्द यमुना पार सीलमपुर में किराये के कमरे में रहता था। दिल्ली कुछ दिन पहले पहुँच कर गोविन्द के कमरे में मार्क्स की पूँजी पुस्तक का पहला भाग पढा। बातें ठीक लगी।
ग्रुप लीडर से मिलने के बाद कुछ समय कार्यक्षेत्र मेवात-फरीदाबाद। नये सिरे से जुनूनी गतिविधियाँ। फिर मध्य प्रदेश में कूनो-कँवारी नदियों के बीच सहरिया समुदाय में रहा। अचानक 1979 में ग्रुप की दिशा में परिवर्तन : माओ नहीं, लेनिन की राह पर चलने और देहात में गरीबों की बजाय शहरों में फैक्ट्री मजदूरों के बीच केन्द्रित होने की बातें।
## ग्वालियर में जियाजिराव कॉटन मिल में 1940 के दशक से श्री सुमेर लाल मुरार में और श्री किसन लाल ग्वालियर में रहते थे। सुमेर लाल जी के मुरार में नदी सन्तर स्थित घर में निवास तथा भोजन का प्रबन्ध। जे सी मिल और ग्वालियर रेयन फैक्ट्री मजदूरों के बीच गतिविधियों के संग-संग लश्कर में छात्रों के बीच चर्चायें। उस समय वहाँ एस.एफ.आई. छात्रों में बहुत सक्रिय थी, श्री शैलेन्द्र शैली संगठन के प्रमुख थे। ग्वालियर में मेडिकल कॉलेज छात्रों के साथ बातचीत होती थी। लगता है कि एस.एफ.आई. को इससे परेशानी हुई थी। चालाकी से श्री शैलेन्द्र शैली को एक बैठक में बुलाया गया। मैं उन्हें पहचानता नहीं था। इस बीच मार्क्स और लेनिन को पढना चल रहा था। चर्चा में एक कुछ ज्यादा ही मुखरता से विरोध कर रहा था। परन्तु चर्चा ऐसे बढ रही थी कि बाकी को मेरी बातों में वजन लग रहा था। ऐसे में विरोध करने वाला भर्त्सना पर उतरा था और फिर सीधे-सीधे धमकियों पर उतर आया था। परन्तु अन्य छात्रों के कारण बात धमकी से आगे नहीं गई थी। विरोध-भर्त्सना-धमकी देने वाले श्री शैलेन्द्र शैली थे जो कि बाद में सी.पी.आई.(एम) पार्टी के उल्लेखनीय नेता बने थे।
## मध्य प्रदेश में इन्दौर प्रमुख औद्योगिक क्षेत्र कहा जाता था। ग्वालियर से इन्दौर जाना। परन्तु वहाँ उस समय सब कपड़ा मिलें बन्द-सी मिली। परदेसिपुरा में सी.पी.आई. पार्टी में एक समय सक्रिय रहे कपड़ा मिल मजदूरों के परिवार में एक भाई, श्री ताराचन्द के घर रहने और भोजन का प्रबन्ध। वे घर पर ही टेलर का काम करते थे और सी.पी.आई.(एम) पार्टी के सदस्य थे। ताराचन्द जी ने मेरे साथ बहुत-ही अच्छा व्यवहार किया। ढर्रे वाली गतिविधियों के संग नये बन रहे छोटी फैक्ट्रियों वाले औद्योगिक क्षेत्र के मजदूरों से बातचीतें। परिवार के बुजुर्ग मुझे देवास ले कर गये थे। सी.पी.आई. में बहुत सक्रिय रहे और उस समय देवास में स्टील पाइप फैक्ट्री में जनरल मैनेजर के पद पर कार्यरत पुराने साथी से मिलवाने। बहुत आदर से मिले थे पर जब मुझे बोले कि क्रान्ति-वरान्ति की बातें छोड़ो और मजदूरों की भलाई के काम करो, तब साथ ले कर गये बुजुर्ग को बहुत दुख हुआ था।
बी.एच.ई.एल. फैक्ट्री भोपाल से बुजुर्ग के मित्र आये। उन्होंने मुझे भोपाल चलने का सुझाव दिया। रहने, भोजन, मिलवाने, चर्चाओं का प्रबन्ध वे करेंगे। बड़ी फैक्ट्री, उस समय बी.एच.ई.एल. भोपाल फैक्ट्री में उन्नीस हजार मजदूर थे। लेनिनवादी फ्रेम में बहुत आकर्षक। उनके साथ भोपाल पहुँचा। इन्टक, एटक, एच.एम.एस., सीटू से सम्बन्धित यूनियनों को कम्पनी से मान्यता प्राप्त थी। हर यूनियन को कार्यालय के लिये बी.एच.ई.एल. ने फ्लैट के साथ फोन दिये थे। यूनियन अध्यक्ष केन्द्रीय नेता और महासचिव आदि बी.एच.ई.एल. मजदूरों में से। बी.एच.ई.एल. सम्बंधित महत्वपूर्ण वार्तायें दिल्ली में कम्पनी मुख्यालय में होती थी। तमिलनाडु में त्रिचनापल्ली में फैक्ट्री, हरिद्वार में फैक्ट्री, भोपाल में फैक्ट्री में यूनियनों के अध्यक्ष केन्द्रीय नेताओं को वायुयान से यात्रा का और फैक्ट्री मजदूरों में से यूनियन नेताओं को रेल से दिल्ली की यात्रा का खर्च कम्पनी देती थी। भोपाल से दिल्ली की उस रेल यात्रा में पाँच सौ रुपये की बचत होती थी, 1981 में यह उल्लेखनीय राशि थी, कौन जायेगा पर खींचातान होती थी। 51-51 सदस्यों वाली कार्यकारिणी यूनियनों ने बना रखी थी। और, यूनियनों से बी.एच.ई.एल. मजदूर इतनी दूर थे कि यूनियनों के संयुक्त प्रदर्शन में 300 लोग भी नहीं होते थे। लड़ाकू संघर्षों में अग्रणी रहे मजदूर जो कि 1981में यूनियनों में पदाधिकारी भी थे, वे बहुत दुखी थे।
फैक्ट्री के एक गेट की बगल में एक क्षेत्र में चाय आदि की दुकानों में मित्र, श्री मनोहर लाल वर्मा (मास्टरजी) की टेलर शॉप चर्चाओं का अड्डा था। मार्क्स और एंगेल्स के 1848 के “कम्युनिस्ट घोषणापत्र” को शिक्षित और सक्रिय मजदूरों ने बार-बार बहुत कठिन बताया तो लगा कि अनुवाद की भाषा से बड़ी समस्या यूरोप के इतिहास-संस्कृति के सन्दर्भ हैं। उपमहाद्वीप के सन्दर्भ ले कर बी.एच.ई.एल. परिसर में बनी “मजदूर का क-ख-ग” तैयार हुई। ग्वालियर से पचास पन्ने की पुस्तिका के तौर पर छपी। वरकरों ने पसन्द की। कुछ मजदूरों ने पुस्तिका एटक के केन्द्रीय महासचिव होमी दाजी को दी। उन्होंने पुस्तिका की भर्त्सना की थी। 1981 में बी.एच.ई.एल. के एक युवा मजदूर की बात : “हमारी मर्जी के बिना मैनेजमेन्ट हम से उत्पादन नहीं करवा सकती। मशीन चलती रहेगी। आठ घण्टे खड़े रहेंगे। हवा में कट लगते रहेंगे।”
बी.एच.ई.एल. भोपाल में लेनिन की रचनाओं का बहुत अध्ययन किया। पार्टी कार्यक्रम के महत्व पर लेनिन के जोर के दृष्टिगत “मार्क्सवादी-लेनिनवादी मजदूर पार्टी का ड्राफ्ट कार्यक्रम” तैयार किया। दिसम्बर 1981 में दिल्ली में ग्रुप लीडर से मिलने पहुँचा था। पूर्व में तय स्थान-समय पर, दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने पार्क में श्री आर पी सराफ से मुलाकात। उन्हें ड्राफ्ट दिया। इस पर उनका सन्तुलन खो-सा देना मेरे लिये बहुत-ही आश्चर्य की बात थी। वे 1940 के दशक से सक्रिय थे, जम्मू-कश्मीर में राजा के शासन के समय डेमोक्रेटिक कॉन्फ्रेंस, फिर सी पी आई, सी पी आई (एम), सी पी आई (एम-एल) में उल्लेखनीय नेता और …. [भावार्थ : और यह कल का छोकरा काउन्टर ड्राफ्ट लाया है!!!]। श्री सराफ के अलग पार्टी बनाने, मध्य प्रदेश के सम्पर्क उन्हें नहीं बताने, घर-परिवार में वापस जाने की तैयारी जैसे आरोप मेरे लिये स्तब्धकारी थे। फिर उनका ब्रह्मास्त्र : वहीं और उसी समय मेरे से सम्बन्ध-विच्छेद।
इस पर मैं भोपाल वापस नहीं गया। वर्षों मध्य प्रदेश नहीं गया। दिल्ली के गले पर औद्योगिक शहर फरीदाबाद को कार्यक्षेत्र बनाने का तय किया। यह एक प्रस्थान-बिन्दु बना। जनवरी 1982 की सर्दी अब भी याद है।
दिल्ली में पिलानी के सहपाठी गोविन्द से चर्चा की। अपनी योजना बताई और दस हजार रुपये देने को कहा। गोविन्द ने दस हजार रुपये दिये। और, मार्च 1982 में “मार्क्सवादी-लेनिनवादी मजदूर पार्टी का ड्राफ्ट कार्यक्रम” के आधार पर मासिक “फरीदाबाद मजदूर समाचार” का प्रकाशन आरम्भ हुआ।
## एक पन्ने की एक हजार प्रतियाँ 165 रुपये में छपती थी। बहुत तेजी से कुछ फैक्ट्रियों के 15-20 मजदूरों का अतिसक्रिय समूह बन गया था। दिल्ली बदरपुर बॉर्डर से बल्लबगढ़ के बीच दस-बारह स्थानों पर सुबह की शिफ्टों के समय आठ-दस की टोलियाँ सड़कों पर पच्चीस पैसे में एक प्रति बेचती थी। सक्रिय साथी हर महीने पच्चीस रुपये का योगदान देते थे। 1982 में दिवाली पर मिले बोनस के समय प्रत्येक ने 100 रुपये का योगदान दिया था। उस समय यह उल्लेखनीय राशि थी।
जर्मनी में मुख्यालय, भारत में छह फैक्ट्रियों में उत्पादन, और अमरीका में वाहन निर्माता कम्पनियों को टूल किट निर्यात करती गेडोर हैण्ड टूल्स फैक्ट्रियों में तनखायें अन्य फैक्ट्रियों से काफी अधिक थी।
फरीदाबाद में गेडोर हैण्ड टूल्स कम्पनी के तीन प्लान्टों के साढे तीन हजार मजदूरों की गेट मीटिंग। यूनियन प्रधान ने तीन बातों में से एक को चुनने को कहा था : 600 मजदूर नौकरी छोड़ दें, या 25 प्रतिशत वेतन में कटौती स्वीकार करें, या फिर 6 महीने की स्पेशल लीव पर जायें। मजदूरों ने तीनों को ठुकरा दिया था। यूनियन प्रधान फरीदाबाद सीटू का प्रेसिडेंट भी था। विरोध में हर प्लान्ट के दो-दो मजदूरों के नाम से पर्चा छापा था। इन छह नामों में सैकेण्ड प्लान्ट के हरि लाल का भी नाम था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के गाँव में जन्मे हरि लाल पूर्वी पाकिस्तान सीमा पर ईंट-भट्ठों पर काम कर, बनारस में रिक्शा चला कर, बाँस बरेली में लोहा तोड़ कर, दिल्ली में बोरी लादना-उतारना कर, साइकिल फैक्ट्री में काम कर, 1973 में गेडोर फैक्ट्री में लगे थे। ए-शिफ्ट में लन्च ब्रेक में हरि लाल जी ने यूनियन प्रेसिडेंट से मैनेजमेन्ट द्वारा साबुन आदि नहीं देने की बात कही तो उन्होंने नाम पूछा। और, हरि लाल नाम सुनते ही धक्का-मुक्की शुरू कर दी थी।
## सैक्टर-22 में शिव कॉलोनी में किराये के कमरे के पते से मजदूर समाचार छपना आरम्भ हो चुका था। फरीदाबाद में फैक्ट्रियों में साप्ताहिक अवकाश के दिन अलग-अलग होना तब काफी था। एक फैक्ट्री वरकरों के समूह में एंगेल्स की पुस्तक, ” परिवार, निजी सम्पत्ति, और राज्य की उत्पत्ति” पढने का सिलसिला चल रहा था। स्कूटर पर एक बन्दा आया। अपना परिचय दिया : फरीदाबाद का इन्टेलिजेन्स ब्यूरो (आई बी) प्रमुख। और चला गया था।
मुजेसर रेलवे फाटक के निकट किराये के कमरे में मजदूर लाइब्रेरी/कार्यालय बनाने के बाद दो-तीन महीने में नियमित से वे “मिलने” आने लगे। दुखी मन से आसाम ट्रान्सफर की बात बताई और फरीदाबाद के नये आई बी प्रमुख को “मिलवाने” लाये थे। नये आई बी प्रमुख का मुख पान से लाल रहता था, नाम शायद आर के सिंह बताया था, और एक बार यूँही बोले थे : आई आई टी कानपुर में एम टेक छात्र था बेचारा (नाम शायद लाहिड़ी लिया था)। अब नहीं रहा…. एक बार फरीदाबाद आई बी चीफ, रोहतक आई बी चीफ के साथ आये थे। एक परिचित प्रशासनिक अधिकारी का पोस्ट कार्ड डाक से उठाया गया था जिसमें “आओ कभी। चाय पर गपशप करेंगे।” जैसा कुछ लिखा होगा। दो जिलों के इन्टेलिजेन्स ब्यूरो चीफ यह पूछने आये थे कि चाय पर क्या गपशप करने वाले थे…….