टिप्पणी : “धर्म सामन्ती अवशेष हैं “

श्री गुरमीत ने “तर्कशील” व्हाट्सएप समूह में श्री अशोक कुमार की एक पोस्ट, “धर्म सामन्ती अवशेष हैं।” साँझा की। पोस्ट लम्बी है इसलिये पहले अपनी टिप्पणी और उसके बाद उसे यहाँ दे रहे हैं।

## 500 ईसापूर्व मगध क्षेत्र में स्वामी गण उल्लेखनीय का विवरण है। दासों के बढते विद्रोहों द्वारा क्षेत्र में हिंसा के वातावरण की कहानियाँ।

महावीर जैन और गौतम बुद्ध मगध क्षेत्र के। दोनों ने ही शान्ति और अहिंसा का प्रचार किया। दोनों ही स्वामी सिद्धान्तकार लगते हैं।

समता की धारणा स्वामियों में बराबरी को अभिव्यक्त करती लगती है। यूनान में भी नागरिकों के बीच समता की धारणा इन प्रस्थापनाओं के संग है कि स्वामी नागरिक हैं और दास नागरिक नहीं हैं।

यहाँ एक दास द्वारा संघ का सदस्य बन कर सांसारिक कर्तव्यों से मुक्त होने की कहानी का अन्त इस आदेश-निर्देश-नियम के साथ है कि स्वतन्त्र पुरुष ही संघ का सदस्य बन सकता है।

उपमहाद्वीप में सामन्तवाद के उल्लेखनीय बनने को नन्द वंश – मौर्य वंश से आरम्भ हुआ कहा जा सकता है। महावीर और गौतम के डेढ-दो सौ वर्ष पश्चात।

और, विश्व के अन्य क्षेत्रों में भी स्वामी संस्कृति को सामन्ती, व्यापार के दबदबे, तथा मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन वाले सामाजिक गठनों द्वारा अपने-अपने अनुकूल तराशने के विवरण हैं।
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## श्री अशोक कुमार की बातें :

धर्म सामन्ती अवशेष हैं।

बुद्ध और बौद्धधर्म ही नहीं अन्य सभी धर्म सामंती उत्पादन सम्बन्धों की उपज रहे हैं और सामंती व्यवस्था को ही पोषित करते रहे हैं । आज जितने भी धर्म हैं वे सभी सामंती युग के मरणशील वैचारिक अवशेष मात्र हैं । अतीत में, किसी भी धर्म ने कभी भी सामाजिक परिवर्तन या सामाजिक क्रांति की बात नहीं की क्योंकि धर्म का आशय आत्मिक क्रांति से होता है, सामाजिक क्रांति से नहीं । और आत्मिक क्रांति का अर्थ होता है स्वयं को बदलो, समाज को नहीं । इसीलिए धर्म का कोई सामाजिक सन्दर्भ नहीं होता । धार्मिक मान्यताओं के अनुसार धर्म व्यक्ति के भीतर घटने वाली कोई आत्मिक घटना है और यह घटना बेहद निजी तल पर घटित होती है । इसीलिए व्यक्ति के भीतर घटने वाली इस घटना को किसी भी व्यक्ति या समूह के साथ कदापि सांझा नहीं किया जा सकता । यही कारण है कि धर्म का कभी भी कोई संगठन नहीं हो सकता क्योंकि यह व्यक्ति का बेहद निजी मामला है । इसीलिए जब धर्म संगठन का रूप ले लेता है तब वह धार्मिक नहीं रह जाता साम्प्रदायिक हो जाता है और साम्प्रदायिकता राजनीति का भोजन है, खाद पानी है जिसका पूंजीवादी व्यवस्था में व्यक्ति और विभिन्न समूहों द्वारा अपने निजी हितों और राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है । इसीलिए आज जितने भी धर्म अस्तित्व में हैं वे कोई धार्मिक संगठन नहीं हैं । ये राजनीतिक संगठन हैं और ये संगठन आज भी किसी न किसी बहाने या जाने-अनजाने शासकवर्ग के ही हितों की पूर्ति करते नज़र आते हैं । इसीलिए न तो अतीत में ही कभी कोई धार्मिक समाज अस्तित्व में रहा है और न ही भविष्य में कभी कोई धार्मिक समाज हो सकता है । यह असंभव है । इसीलिए जो भी सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक संगठन या राजनेता भविष्य में किसी धर्म विशेष पर आधारित समाज बनाने का दावा करते हैं वे निहायत ही धूर्त और पाखंडी हैं ।

बुद्ध का दुख से आशय किसी व्यक्ति या समाज के भौतिक दुखों से कदापि नहीं था बल्कि उनका आशय व्यक्ति के आध्यात्मिक या आत्मिक दुखों से था । बुद्ध राजपुत्र थे भौतिक रूप से उनको कोई दुख नहीं था । वे ज़रूरत से ज़्यादा भौतिक रूप से साधन-संपन्न थे । लेकिन फिर भी उन्होंने गृह-त्याग किया । यह गृह-त्याग उन्होंने कोई भौतिक सुखों की प्राप्ति के लिए नहीं किया था । स्पष्ट ही है कि वे किसी आत्मिक सुख की खोज में ही घर से निकले थे । बुद्ध का मानना था कि व्यक्ति के दुखों के तमाम कारणों की जड़ें व्यक्ति की स्वयं की अपनी तृष्णाओं में हैं, दूषित या अव्यवस्थित समाज व्यवस्था में नहीं । इसीलिए अपनी तृष्णाओं से मुक्त होकर ही व्यक्ति तमाम दुखों से मुक्त हो सकता है । लेकिन उस समय दलित-शोषित और श्रमिकवर्ग की कथित तृष्णाएं आखिर थी ही क्या ? सिर्फ़ रोटी और तन ढकने के लिए हाथ भर कपड़ा ही न । ये तो व्यक्ति की बेहद आवश्यक और मूलभूत आवश्यकताएं ही हैं । ये कोई तृष्णाएं थोड़े ही हैं । तृष्णाएं तो ज़रूरत से ज़्यादा होने पर भी और की चाह का नाम है और इस और कि चाह को स्वयं बुद्ध ने दुष्पूर कहा है । जो हो, तत्कालीन सामंती व्यवस्था में दलितशोषित और श्रमजीवी दुखों से परिपूर्ण जीवन जीने को मजबूर था । दूसरी ओर, शोषकवर्ग का जीवन तृष्णाओं से परिपूर्ण था और फिर भी वह ऐश्वर्यशाली जीवन जी रहा था । बुद्ध का यह विचार ब्राह्मणवाद के उस सिद्धांत से भी ज़्यादा ख़तरनाक मालूम पड़ता है जिसमें व्यक्ति के समस्त दुखों का कारण पूर्व जन्मों में उसके द्वारा किये गए पाप कर्मों को बताया गया था क्योंकि कर्म का यह सिद्धांत तो फिर भी व्यक्ति के दुखों का कारण उसके पूर्व जन्मों के पाप कर्मों को मानता था लेकिन बुद्ध का यह सिद्धांत तो मनुष्य के दुखों का कारण इसी जन्म में मौजूद मनुष्यों की तृष्णाओं में निहित मानता था । ज्ञातव्य है कि बुद्ध का एक नाम तथागत भी है । यह शब्द पाली भाषा के तथाता शब्द से आता है जिसका अर्थ होता है सर्वस्वीकार्य का भाव । तथागत ऐसे आध्यात्मिक पुरुष को कहा जाता है जो ‘सर्वस्वीकार’ की भावदशा में स्थित हो । यानी जगत जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार करते हुए दूसरों को भी उसी भावदशा में लाने के लिए प्रयत्नशील हो । यह दुष्पूर तृष्णा से मुक्त होने का बुद्ध द्वारा दिया गया उपाय था । स्पष्ट है, कि बुद्ध का किसी सामाजिक क्रांति वगैरह से कभी कोई सरोकार कभी नहीं था । उनका सारा जोर व्यक्ति के भीतर घटने वाली किसी आत्मिक क्रांति से था यानी उनका जोर व्यक्ति द्वारा स्वयं को बदलने पर था समाज को बदलने पर नहीं । उन्होंने शोषकवर्ग से केवल इतना ही आग्रह किया कि वे शूद्रों और श्रमजीवी वर्ग के साथ कठोर व्यवहार न करें बल्कि मानवीय और दयापूर्ण व्यवहार करें । दूसरी ओर, बुद्ध यह उपदेश देने से भी न चूके कि शोषितवर्ग को भी निष्ठापूर्वक अपने मालिकों की सेवा में रत रहना चाहिए और अपने मालिकों के प्रति वफ़ादार रहना चाहिए । स्वयं बुद्ध और कालांतर में बौद्धधर्म ने शोषक और शोषितों के बीच मध्यस्थता की भूमिका अदा करते हुए यथास्थिति को बनाए रखने के लिए सामाजिक समन्वय की बात की न कि सामाजिक बदलाव की । इसीलिए उनके संघ में उनके शिष्यों के रूप में शासक और शोषित, राजा और रंक, ब्राह्मण और शूद्र, दास और दास स्वामी एकसाथ नज़र आते हैं और यह दृश्य शोषक और शोषितों के बीच सदियों से भाईचारे और समानता का भ्रम पैदा करते रहे है । लेकिन यह बात भी सच है कि ब्राह्मणवाद की तुलना में बुद्ध और बौद्धधर्म के उदारवादी रुख़ के कारण दलित-शोषित वर्ग ने कुछ हद तक राहत की सांस ज़रूर ली । लेकिन इसके बावजूद सामंती युग में यानी स्वयं बुद्ध के समय में भी समाज में श्रम के शोषण पर आधारित व्यवस्था होने के कारण दास और दास-स्वामी, नौकर और मालिक के संबंध अस्तित्व में थे । और इस पूंजीवादी युग में भी श्रम के शोषण पर आधारित व्यवस्था अस्तित्व में होने के कारण मालिक और मज़दूर के संबंध अस्तित्व में हैं । ध्यान देने की बात है, जिस समाज में नौकर-मालिक और दास और स्वामी के संबंध मौजूद होंगे वहां मैत्री, प्रेम, बंधुता जैसे भावों का पनपना लगभग असंभव ही होता है । वहां तो ईर्ष्या, द्वेष, लालच और अंततः हिंसा पर आधारित आपसी संबंध ही विकसित हो सकते हैं क्योंकि प्रेम, मैत्री और बंधुता जैसे भाव समान तल पर ही अस्तित्व में आ सकते हैं । आज अडाणी-अम्बानी और उनके यहां काम करने वाले नौकरों के बीच प्रेम, बंधुता और मैत्री के संबंधों का अस्तित्व में होना कैसे सम्भव हो सकता है ? वे उनके प्रति दयापूर्ण तो हो सकते हैं प्रेमपूर्ण नहीं । और किसी के प्रति सहानुभूतिपूर्ण और दयापूर्ण होना कोई बहुत अच्छी स्थिति नहीं है । इसमें तो आप दाता हो जाते हैं और दूसरा भिखारी । यह असम्मानजनक स्थिति है । ऐसी दयनीय स्थिति में उनके बीच मैत्री का सम्बंध होना लगभग असंभव है । किसी भी वर्गविभक्त समाज में चाहे वह सामंती समाज हो या पूंजीवादी, प्रेम, मैत्री और बंधुता के सम्बंध मूल रूप से व्यक्ति की सम्पत्तिगत हैसियतों के आधार पर तय होते हैं । वे किन्हीं धार्मिक उपदेशों, नैतिक मान्यताओं, शास्त्रोक्त आज्ञाओं या किसी आध्यात्मिक पुरुष के आदेशों के आधार पर तय नहीं होते । ये सभी नीति-नियम और उपदेश इत्यादि तो समाज में मौजूद असमान सम्पत्तिगत सम्बन्धों को न केवल व्यवस्था देते हैं बल्कि क़ानूनन मान्यता प्रदान करने का भी काम करते हैं ।

इसी प्रकार, वर्गविभक्त समाज में मनुष्य की स्वतंत्रता भी मनुष्य की सम्पत्तिगत हैसियतों के आधार पर ही तय होती है । मनुष्य की स्वतंत्रता की सीमा भी वहीं तक जाती है जहां तक संपत्ति पर व्यक्ति का आधिपत्य होता है । टाटा, बिड़ला, अडाणी और अंबानी जैसे सम्पत्तिवान लोगों की स्वतंत्रता के सामने उनके यहां काम करने वाले मनुष्य या आम आदमी की स्वतंत्रता की क्या कीमत हो सकती है ? ज़ाहिर है, नौकर और मालिक की स्वतंत्रता का मूल्य कदापि बराबर नहीं हो सकता भले ही संवैधानिक रूप से वे बराबर और स्वतंत्र घोषित कर दिए गए हों । उपरोक्त सभी धनपति और पूंजीपति करोड़ों दलितों और श्रमजीवी वर्ग के श्रम का शोषण करने के लिए संवैधानिक और क़ानूनी रूप से स्वतंत्र हैं लेकिन क्या करोडों दलित और श्रमजीवी मिलकर भी इन पूंजीपतियों के श्रम का शोषण करने के लिए स्वतंत्र हैं ? लेकिन एक अकेला अंबानी करोड़ों श्रमिकों के श्रम का शोषण करने में संवैधानिक और कानूनी रूप से सक्षम और स्वतंत्र है । ऐसी व्यवस्था में प्रत्येक मनुष्य के लिए स्वतंत्रता का क्या अर्थ हो सकता है ? इसी तरह न्याय भी मनुष्य की सम्पत्तिगत हैसियतों से जुड़ा मामला है । डॉ अम्बेडकर ने श्रम के शोषण और निजी संपत्ति पर आधारित व्यवस्था को अक्षुण्ण रखते हुए एक व्यक्ति एक वोट के आधार पर पूंजीवादी लोकतंत्र का समर्थन किया और संविधान की प्रस्तावना में न्याय, स्वतंत्रता, समानता जैसे अच्छे-अच्छे शब्दों को जगह दी जिसके कारण दलित-शोषित और श्रमजीवी वर्ग के बीच समानता और स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता का भ्रम पैदा हुआ है । जबकि मार्क्स के अनुसार आर्थिक जनतंत्र यानी श्रम के शोषण और निजी संपत्ति के उन्मूलन के बग़ैर न्याय, समानता, स्वतंत्रता, मैत्री और बंधुता जैसे अपेक्षित लक्ष्यों को प्राप्त करना लगभग असंभव है । आर्थिक जनतंत्र के अभाव में ये मात्र खोखले शब्दों के इलावा कुछ नहीं ।

वैदिक युग जिसे महान संस्कृति और धार्मिक युग कहकर प्रचारित किया जाता रहा है वह भी कोई धार्मिक या प्रेम पर आधारित समाज नहीं था । निश्चित ही वह समाज घोर अधार्मिक, घृणा और हिंसा पर आधारित समाज रहा होगा क्योंकि अगर वह प्रेम और धार्मिक समाज रहा होता तो वर्णव्यवस्था जैसी घोर अमानवीय व्यवस्था का अस्तित्व में होना असंभव था क्योंकि धर्म तो प्रेम और मैत्री का ही दूसरा नाम प्रचारित किया जाता रहा है । लेकिन बुद्ध के समय में भी वही वर्णव्यवस्था अस्तित्व में थी और आज भी है । वर्णव्यवस्था के केवल रूप बदले हैं आधार नहीं । इसीलिए कोई भी धर्म कभी भी किसी सामाजिक बदलाव या सामाजिक क्रांति का वाहक कदापि नहीं हो सकता । यह असंभव है । डॉ अम्बेडकर भी पूंजीवादी लोकतंत्र के बड़े समर्थक थे और उसी सामंती-पूंजीवादी व्यवस्था को उन्होंने संविधान बनाकर मान्यता दी । लेकिन यह व्यवस्था भी श्रम के घोर शोषण और दमन पर आधारित मुनाफाखोर व्यवस्था है और यह व्यवस्था विकसित होकर आदमख़ोर व्यवस्था में बदल जाती है क्योंकि स्वयं बुद्ध के मतानुसार मनुष्य की तृष्णा दुष्पूर है । ध्यान रहे, वर्णव्यवस्था, जातिवाद और समाज में मौजूद सभी तरह की विसंगतियों का मुख्य आधार श्रम का शोषण ही रहा है । श्रम के शोषण और मुनाफ़ाख़ोरी पर आधारित वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था का आज भी सबसे अधिक शिकार दलितवर्ग ही है । बल्कि यूं कहें कि श्रम के शोषण की यही व्यवस्था तमाम आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक असमानताओं और दलितवर्ग के कष्टों और दुखों का मुख्य आधार बनी हुई है । इसीलिए इस वर्तमान सामंती-पूंजीवादी समाजव्यवस्था को बदले बग़ैर वर्ण और जाति जैसे अमानवीय भेदभावों का उन्मूलन नहीं किया जा सकता । अम्बेडकर ने छोटे-मोटे धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक सुधारों के साथ पूंजीवादी व्यवस्था को ही स्थापित करने का काम किया । अम्बेडकर की कल्पना के पूंजीवादी लोकतंत्र को ज़्यादा-से-ज़्यादा पूंजीवादी समाजवाद ही कहा जा सकता है । लेकिन उसके परिणाम भी आज सबके सामने हैं । आज यह तथाकथित लोकतंत्र भीड़तंत्र साबित हो रहा है और तेज़ी के साथ तानाशाही की ओर बढ़ रहा है ।इसीलिए मेरे देखे, गांधीवाद, अम्बेडकरवाद, बुद्धवाद, हिन्दूराष्ट्र, लोहियावादी समाजवाद जैसे वाद और कुछ नहीं बल्कि सामंतवादी और पूंजीवादी व्यवस्थाओं के ही नए नाम और नए-नये संस्करण मात्र हैं और इस पूंजीवादी व्यवस्था में शोषकवर्ग द्वारा दलित-शोषित और श्रमजीवीवर्ग को दिए जा रहे छलावे और धोखे ही सिद्ध हो रहे हैं जिन्हें वर्ग-चेतना के अभाव में शोषित-पीड़ित वर्ग फिलहाल समझने में असमर्थ है । ये सभी वाद (ism) यानी छलावे और पाखंड इस पूंजीवादी व्यवस्था में अपने-अपने व्यक्तिगत और वर्गीय हितों के लिए संघर्ष करने वाले राजनीतिक, धार्मिक और जातीय संगठनों के ही नाम हैं और कुछ नहीं । आर्थिक संसाधनों की इसी आपसी छीना-झपटी के कारण समाज में कलह है, हिंसा है, द्वेष, लालच है, भ्रष्टाचार आपराधिक गतिविधियां हैं । मार्क्स इन सभी संकुचित और श्रम-विरोधी विचारधाराओं और वादों (ism-s) का अतिक्रमण हैं । मार्क्स किसी धार्मिक या आत्मिक क्रांति जैसी फ़िजूल की बातों में नहीं उलझते । वे बिना किसी लाग-लपेट के सीधे मुद्दे की बात करते हैं । उनका मानना था कि मनुष्य की मूल समस्याएं और उसके तमाम दुखों और कष्टों का कारण मूलतः भौतिक है और भौतिक असमानताओं में उनकी जड़ें निहित हैं । इसीलिए उनका निपटारा आत्मिक या धार्मिक स्तर पर नहीं बल्कि भौतिक स्तर पर ही सम्भव हो सकता है । यह कथित लोकतंत्र के नाम पर वोट के ज़रिए सत्ता-परिवर्तन का मामला नहीं है बल्कि व्यवस्था-परिवर्तन का मामला है और इस मामले को बलपूर्वक ही सम्पन्न किया जा सकता है क्योंकि इतिहास के किसी भी पन्ने पर एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जब शोषकवर्ग ने स्वेच्छा से या हृदयपरिवर्तन के ज़रिए श्रम के शोषण को बंद किया हो या किसी आध्यात्मिक पुरुष के धार्मिक उपदेशों से अभिभूत होकर शोषितवर्ग को सत्ता का सौंपी हो । इसीलिए यह धार्मिक उपदेशों या हृदयपरिवर्तन का मामला कतई नहीं है । लेकिन अम्बेडकर ने मार्क्स के बलपूर्वक सत्ता हासिल करके दलितों, किसानों, मज़दूरों और अन्य वंचित तबकों का शासन स्थापित करने के विचार का तीखा विरोध किया और उसको तानाशाही और हिंसा पर आधारित शासन कहा । अम्बेडकर यह समझने में असफल रहे कि वर्तमामान सामंती और पूंजीवादी गठजोड़ वाली व्यवस्था का मुख्य आधार ही श्रम के शोषण और निजी संपत्ति पर आधारित व्यवस्था है और इस व्यवस्था को नियंत्रित, संचालित और जारी रखने के लिए राज्य की ज़रूरत पड़ती है क्योंकि इसको बलपूर्वक ही अनजान दिया जा सकता है । मार्क्स ने ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर सिद्ध किया कि समाज के वर्गों में विभक्त होने के बाद राज्य नामक संस्था का जन्म ही हिंसा के गर्भ से हुआ है और बिना हिंसा के इसे अक्षुण्ण नहीं रख जा सकता । अतः जिस समाजव्यवस्था में घोर भौतिक असमानता मौजूद हो वह हिंसा पर ही आधारित हो सकता है । मूल रूप से भौतिक असमानता ही तमाम तरह की व्यक्तिगत और सामाजिक हिंसाओं, पापों व अपराधों की जननी है और सामंती और पूंजीवादी दोनों ही व्यवस्थाओं का मूल आधार यह भौतिक असमानता ही रहा है । यह हिंसा का सूक्ष्मतम रूप से जो आसानी से दिखाई नहीं पड़ता । वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था में जो स्वतंत्रता, न्याय, समानता और मैत्री जैसे शब्दों का बखान किया जाता रहा है वहआभासी हैं, वास्तविकन हीं । ये कोरे शब्द मात्र हैं । अतः अंबेडकर द्वारा समर्थित पूंजीवादी लोकतंत्र मूल रूप से हिंसा पर ही आधारित है और यह व्यवस्था आज भी अस्तित्व में है । इस सामूहिक, संगठित व्यवस्थागत हिंसा का शिकार मुख्य रूप से दलित-शोषित और श्रमजीवी वर्ग ही तो रहा है । अम्बेडकर यह फ़र्क़ कर पाने में असफल रहे कि हिंसा पर आधारित व्यवस्था को जारी रखने और इस हिंसा को हमेशा के लिए ख़त्म करने वाली हिंसा में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ होता है । बड़ी हैरानी की बात है कि दलित-शोषित और श्रमजीवी वर्ग द्वारा श्रम के शोषण और निजी संपात्ति पर आधारित हिंसक व्यवस्था को हमेशा के लिए ख़त्म करने के अभियान को वे हिंसक कार्रवाई मानते हैं । अम्बेडकर का मानना था कि संसदीय लोकतंत्र, बुद्ध के उपदेशों और हृदयपरिवर्तन के ज़रिए इसी पूंजीवादी व्यवस्था में आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक क्रांति को अंजाम दिया जा सकता है । यह एक बेहद आसानी से समझने और समझने वाला तथ्य है कि हृदयपरिवर्तन व्यक्तियों का तो किया जा सकता है लेकिन किसी पूरी जाति, वर्ण या वर्ग का नहीं किया जा सकता जबकि समस्या कोई व्यक्तिगत नहीं है व्यवस्थागत है । लेकिन दो-चार व्यक्तियों का हृदयपरिवर्तन होने से कोई व्यवस्था नहीं बदल जाती । व्यवहार में वे स्वयं गांधी, नेहरू व ब्राह्मणों का हृदयपरिवर्तन कर पाने में पूरी तरह से नाकाम रहे । इसीलिए उनका हृदयपरिवर्तन पर आधारित उनका यह सिद्धांत बेहद काल्पनिक, अव्यवहारिक और हास्यास्पद मालूम पड़ता है । मार्क्स ने व्यक्तियों के बदलने पर नहीं बल्कि सामाजिक व्यवस्था को बदलने पर ज़ोर दिया । हालांकि अम्बेडकर का दावा था कि भारत के सभी कम्युनिस्टों ने मिलकर भी कम्युनिज़्म पर इतने ग्रंथ नहीं पढ़े होंगे जितने अकेले उन्होंने पढ़े हैं । लेकिन हैरानी की बात है कि फिर भी मार्क्स के भौतिकवाद को उन्होंने सुअरों दर्शन कहा और इतना ही नहीं उन्होंने कहा कि मार्क्सवाद जंगल की उस आग के समान है जिसके रास्ते में जो भी आता है उसको भस्म कर देता है । अपनी इन्हीं दलीलों के आधार पर उन्होंने मार्क्सवाद को खरिज़ करते हुए बौद्धधर्म को मार्क्सवाद के विकल्प के तौर पर पेश किया और उसे दलितवर्ग की मुक्ति का मार्ग घोषित करते हुए बौद्धमय भारत की कल्पना की । लेकिन बौद्धधर्म के माध्यम से शासकवर्ग का हृदयपरिवर्तन कब और कैसे होता है यह देखने वाली बात है ।

– अशोक कुमार

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उल्लास है उपचार

प्रस्तुत है मजदूर समाचार के जनवरी 2012 अंक से “उल्लास है उदासी-अवसाद का उपचार”।

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मजदूर समाचार पुस्तिका दस

“मजदूर समाचार पुस्तिका दस” का आनन्द लें।

जनवरी 2011 से दिसम्बर 2011

सम्भव है
कुछ प्रस्थान बिन्दु मिलें।

# आदान-प्रदान बढाने के लिये अपने ग्रुपों में फॉर्वर्ड करें।

# दिल्ली और इर्द-गिर्द के औद्योगिक क्षेत्रों में स्थिति को देखते हुये अभी पुस्तिका छापेंगे नहीं। व्हाट्सएप और ईमेल द्वारा इसे प्रसारित करेंगे। उपलब्ध अन्य माध्यमों द्वारा आदान-प्रदान बढाने में आप भी योगदान करें।

# आप स्वयं छापना चाहते हैं तो खुशी-खुशी छापें। ए-4 साइज के 48 पन्ने हैं।

# पढते समय जो त्रुटियाँ मिलें वो बताना ताकि छापने से पहले हम उन गलतियों को दूर कर सकें।

मजदूर समाचार पुस्तिका दस:

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मारुति मानेसर डायरी (6)| Maruti Manesar Diary-6

“जान-पहचान जहाँ झमेले लिये है वहाँ अनजाने भी अपने हैं का विचार-व्यवहार खूब कमाल करेगा।” — मारुति मानेसर डायरी (6)।

## विश्व-भर में अधिक से और अधिक लड़खड़ा रही ऊँच-नीच, रुपये-पैसे, खरीद-बिक्री को बनाये रखने के बदहवास प्रयास दुनिया-भर में हो रहे हैं। इन कोशिशों में “पहचान की राजनीतियाँ” इधर कुछ ज्यादा-ही सक्रिय हैं। इस-उस भेद को आधार बना कर “अपने” और “पराये” बनाना पाँच-दस हजार वर्ष से ऊँच-नीच के वास्ते कन्धे प्राप्त करने का एक जरिया रहा है।

## कोई अपने नहीं। कोई पराये नहीं। सब अपने हैं।

संसार में सात अरब लोगों के साँझेपन को आगे लाने, आगे रखने में एक योगदान के लिये 2011-12 में मारुति सुजुकी मानेसर फैक्ट्री मजदूरों की गतिविधियों की एक झलक मजदूर समाचार के फरवरी 2012 अंक से यहाँ प्रस्तुत है।

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मजदूर समाचार पुस्तिका नौ

मजदूर समाचार पुस्तिका नौ” का आनन्द लें।

जनवरी 2012 से दिसम्बर 2012

सम्भव है
कुछ प्रस्थान बिन्दु मिलें।

# आदान-प्रदान बढाने के लिये अपने ग्रुपों में फॉर्वर्ड करें।

# दिल्ली और इर्द-गिर्द के औद्योगिक क्षेत्रों में स्थिति को देखते हुये अभी पुस्तिका छापेंगे नहीं। व्हाट्सएप और ईमेल द्वारा इसे प्रसारित करेंगे। उपलब्ध अन्य माध्यमों द्वारा आदान-प्रदान बढाने में आप भी योगदान करें।

# आप स्वयं छापना चाहते हैं तो खुशी-खुशी छापें। ए-4 साइज के 51 पन्ने हैं।

# पढते समय जो त्रुटियाँ मिलें वो बताना ताकि छापने से पहले हम उन गलतियों को दूर कर सकें।

 

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समझदारी-दुनियादारी-व्यवहारिकता आज

— पक्का मकान;
— बिजली;
— सड़क।
इसका एक अर्थ है शिशु को प्रत्येक कदम पर टोकना। बच्चों को हर समय टोकना। दुनियादारी का मतलब आज प्रत्येक बच्चे को बम बनाना भी है।

## इधर विश्व-भर में लॉकडाउन-पूर्णबन्दी ने ऊँची उड़ानों के अनुकूल वातावरण में बहुत उल्लेखनीय वृद्धि की है। हमारे सम्मुख अव्यवहारिक होने, बुलन्द हौसलों, और आसमानों के मुक्के मारने का बहुत-ही बढिया समय है। एक पूर्वज के शब्दों में : Time for audacity, more audacity, and still more audacity. Lively time to be IMPRACTICAL- AUDACIOUS-STORMING THE HEAVENS.

ऐसे में 2011-12 में मारुति सुजुकी मानेसर फैक्ट्री मजदूरों की अव्यवहारिकता से प्रेरित मजदूर समाचार के सितम्बर 2012 अंक की “व्यवहारिक और अव्यवहारिक” वाली उड़ान एक प्रेरक भूमिका निभा सकती लगती है। प्रस्तुत है।

इस बहुत-ही जीवन्त समय में ऊँची उड़ानों के वास्ते पँख फैला कर आनन्द-उल्लास प्राप्त करें।

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आठ घण्टे का छब्बीस-तीस घण्टे बनना | Working Day-II

— ऊँच-नीच वाले सामाजिक गठनों में सुधार की बातें बहुत होती हैं। टिकाऊ परिवर्तन के लिये सुधार की राहों को कारगर राह प्रस्तुत किया जाता है।

— सुधारों को थोथा पाया गया है। शासन के लिये, सत्ता के लिये भिड़ रहे गिरोहों के हाथों में यह सुधार – वह सुधार डुगडुगी-झुनझुनों की भूमिका में पाये गये हैं।

इस सन्दर्भ में लगता है कि यहाँ प्रस्तुत मजदूर समाचार के मई 2013 अंक से “वर्किंग डे – कार्यदिवस” में मनन के लिये सामग्री मिल सकती है।

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फैक्ट्री किसकी ? कम्पनी किसकी? | Working Day-I

मालिक कौन है ? स्वामी कौन है ? धणी कुण सै ?

चेहराविहीन पूँजी – बिना शक्ल सरमाया – faceless capital की दस्तक 1860 के आसपास सुनी जाने लगी थी। रेलवे इसके उल्लेखनीय उदाहरण थे। उत्पादन में भी पूँजीपति-कारखानेदार-फैक्ट्री मालिक का स्थान इकन्नी-दुअन्नी की हिस्सेदारी वाले डायरेक्टर लेते दिखने लगे थे। निजी मालिकाने – प्रायवेट प्रोपर्टी को पूँजीवाद का सार लेने पर प्रश्न उत्पन्न हुये।

सन् 1900 आते-आते उत्पादन क्षेत्र में कम्पनी-स्वरूप ने मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन में प्रमुखता प्राप्त कर ली थी। फैक्ट्री मालिक-कारखानेदार-पूँजीपति- कैपिटलिस्ट लोग(व्यक्ति) मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन में गौण से गौणतर होते गये हैं।

व्यक्ति की बजाय सामाजिक सम्बन्ध का सामने आना। साकार का स्थान निराकार द्वारा लेना; मूर्त रूप का स्थान अमूर्त स्वरूप द्वारा लेना सरलता और जटिलता संग-संग लिये लगता है।

इस सन्दर्भ में यहाँ दे रहे मजदूर समाचार के अप्रैल 2013 अंक से यह सामग्री विचारणीय लगती है।

Working day_FMS

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Factory Workers’ Videos

On Friday, 21st August at the beginning of A-shift at 6am in JNS Instruments factory, plot 4 sector-3, Industrial Model Town, Manesar( Gurgaon, India) workers did not go to their workplaces.

There are 2500 workers in the factory. Sixty percent females.

The management stepped back by five thirty pm. Production became normal in C-shift.

Here are some videos from that day:

 

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व्यवहार-विचार की ऊँची उड़ानों – VI | नर-नारी के सम्बन्ध में

इधर विश्व-भर में लॉकडाउन-पूर्णबन्दी ने व्यवहार-विचार की उड़ानों के अनुकूल वातावरण में बहुत उल्लेखनीय वृद्धि की है।

ऐसे में 2010-12 में फैक्ट्री मजदूरों के व्यवहार-विचार से प्रेरित मजदूर समाचार के जनवरी 2013 अंक की उड़ान एक प्रेरक भूमिका निभा सकती लगती है। प्रस्तुत है उसका छठा अंश, नर-नारी के सम्बन्ध में।

व्यवहार-विचार की ऊँची उड़ानों का आनन्द-उल्लास प्राप्त करें।
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“मैं यह क्या कर रही हूँ? मैं क्यों यह कर रहा हूँ ? हम यह-यह-यह क्या कर रहे हैं? हम यह-यह-यह क्यों कर रहे हैं? जिस-जिस में मन लगता है वही मैं क्यों नहीं करती? जो अच्छा लगता है वही, सिर्फ वही मैं क्यों न करूँ? हमें जो ठीक लगता है उसके अलावा और कुछ हम क्यों करें? मजबूरियाँ क्या हैं? मजबूरियों से पार कैसे पायें ?” प्रत्येक द्वारा, अनेकानेक समूहों द्वारा, विश्व में हर स्थान पर, प्रतिदिन के यह “क्या-क्यों-कैसे” वाले सामान्य प्रश्न जीवन के सार के इर्द-गिर्द थे- हैं | जीवन तो वह है जो तन-मन के माफिक हो, तन-मन को अच्छा लगे । जीवन आनन्द है ! जो तन-मन के विपरीत हो, तन-मन को बुरा लगे वह तो शाप है, पतन है | मानव योनि में जन्म आनन्द है अथवा शाप है वाली पाँच हजार वर्ष पुरानी गुत्थी को मजदूर व्यवहार में सुलझा रहे हैं, मानव योनि व्यवहार में सुलझा रही है।

## चीन में महिला मजदूर फैक्ट्रियों से निकली और पुरुष मजदूर उनके संग-संग थे. बंगलादेश में महिला मजदूर फैक्ट्रियों से निकली और पुरुष मजदूर उनके साथ थे. …. भारत में स्कूलों-कॉलेजों-विश्वविद्यालयों से छात्र-छात्रायें साथ-साथ बाहर निकले.

…. तीन वर्ष पहले नर और नारी के बीच सहज सम्बन्धों की उठती लहरें पूरे संसार में आरम्भ हुई थी। स्त्री और पुरुष के बीच परस्पर आदर तथा प्रेम के बढ़ते रिश्ते दुनिया को अधिकाधिक सुगन्धित करने लगे | मदमस्त करती 2016 की वसन्त ऋतु में प्रकृति में बहार के संग मानव योनि में विश्व-व्यापी बहार है….

फरीदाबाद में यह शाही एक्सपोर्ट फैक्ट्री थी। आज यहाँ लड़के-लड़कियों, स्त्री-पुरुषों के बीच नर और नारी के बहुआयामी सम्बन्धों पर कई किस्म की बातें हो रही हैं। रोचक चर्चायें…

शास्त्रों में, ईश्वरवाणियों में स्त्री को पाप की मूर्ति क्यों कहा गया था? त्रिया चरित को देवता भी नहीं समझ सकते का अर्थ क्या है? प्रकृति ने स्त्री को पुरुष से अधिक यौन क्षमता दी है, एक पुरुष एक स्त्री की भी यौन संतुष्टि नहीं कर सकता, फिर एक पुरुष द्वारा कई स्त्रियों को यौन-तृप्ति के नाम पर मुट्ठी में रखने के प्रयासों का मतलब क्या था? प्रकृति में नर और मादा के अलावा भी लिंग….

मानव योनि में परिवार रूपी संस्था का उदय कब हुआ? परिवार के केन्द्र में पुरुष क्यों था? रक्त की उत्पत्ति तो माँ के गर्भ में होती है – पुरुष के “मेरा खून” उद्घघोष का अर्थ क्या था? परिवार के बदलते स्वरूपों को कैसे समझें? महिलाओं का मजदूर बनना क्या दर्शाता था? स्त्री का मजदूर बनना नारी सशक्तिकरण कैसे था?….

यह संयोग था कि समुदायों की टूटन के दौरान उपजे “मैं” के वाहक पुरुष बने थे। जन्म के पश्चात मृत्यु निश्चित – “मैं’ के लिये इससे उपजती असहय पीड़ा ने पुरुषों को पगला दिया। और, स्त्रियों से डरते पुरुषों की ऊल-जलूल हरकतों ने स्त्री व पुरुष के बीच रिश्ते असहज बनाये थे…..

फैक्ट्री-पद्धति में, मजदूरी-प्रथा में यह (पुरुष) मजदूरों की बदतर होती स्थिति थी जिसने परिवार में अनके परिवर्तन लाये और बढती संख्या में महिलायें मजदूर बनने लगी…..

मजदूर बनी महिलायें “मैं” की नई वाहक बनी थी। स्त्री होना और मजदूर होना पुरुष के मजदूर होने से भी अधिक परेशानी लिये था…जटिल परिस्थतियों से पार पाने के लिये कल्पना-रचना-सृष्टि के दीर्घकालीन अनुभवों ने महिला मजदूरों को मजदूरी-प्रथा पर घातक चोट मारने के योग्य बनाया था । मजदूरी-प्रथा के अनेकानेक अनुभवों वाले पुरुष मजदूरों और महिला मजदूरों का यह मेल-मिलाप था जिसने तीन वर्ष पहले मजदूरी-प्रथा के अन्त की शुरुआत की थी। मजदूरी-प्रथा में प्रत्येक व्यक्ति के अधिकाधिक गौण होते जाने के विपरीत अब हम हर एक को महत्व के आधार पर स्त्रियों व पुरुषों के बीच सहज सम्बन्धों की राहों पर बढ रहे हैं….

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