लखानी फुटवियर

##### लखानी फुटवियर #####

लखानी वरदान समूह की प्लॉट 266 स्थित फैक्ट्री के अन्दर बैठे मजदूरों के आग्रह आज, 12 नवम्बर को आलस्य तोड़ने में सफल रहे। पड़ोस में रहते फैक्ट्री वरकर ने मुझे लखानी फुटवियर फैक्ट्री गेट पर एक बजे छोड़ा। फैक्ट्री में कोलाहल। महिला तथा पुरुष मजदूरों के समवेत स्वर दूर तक गूँज रहे थे।

कल साँय साढे चार-पाँच बजे शिफ्ट छूटने के समय मजदूरों ने पाया था कि बैंक खातों में बोनस के तौर पर बीस प्रतिशत की बजाय दस प्रतिशत राशि भेजी गई थी। लगभग 800 महिला मजदूर तथा 900 पुरुष वरकर फैक्ट्री से नहीं निकले।

मजदूरों को फैक्ट्री के अन्दर बैठे आधा घण्टा ही हुआ था कि खाकी वर्दी वाली पुलिस के संग नीली वर्दी वाली कमाण्डो पुलिस लखानी फुटवियर फैक्ट्री पहुँच गई। महिला पुलिस तथा पुरुष पुलिस फैक्ट्री के अन्दर और बाहर। फैक्ट्री गेट पर कई वरकरों के माता-पिता भी एकत्र हो गये थे।

रात आठ-साढे आठ बजे की शिफ्ट के मजदूरों को पहलेपहल मैनेजमेन्ट ने फैक्ट्री में प्रवेश करने दिया। फिर मैनेजमेन्ट ने गेट बन्द कर दिया। जो वरकर अन्दर पहुँच गये थे उनमें से भी कई को एच आर वालों ने कार्ड पंच करने से मना कर दिया और वैसे ही अन्दर जाने की कही। रात की शिफ्ट के मजदूर अपने कार्यस्थलों पर जाने की बजाय दिन की शिफ्ट के स्त्री और पुरुष मजदूरों से मिल गये। रात आठ बजे फैक्ट्री के अन्दर आवाजें अधिक तेज हो गई थी।

पुलिस दबाव तो बना ही रही थी, रात 12 बजे पुलिस अधिकारी मजदूरों से बोले थे कि अब घर जाओ, अब देर करोगे तो सड़कों पर पुलिस आपकी रक्षा नहीं कर सकेगी। रात एक बजे तक मजदूर फैक्ट्री से बाहर हो गये थे।

आज सुबह आठ-साढे आठ बजे मजदूरों को फैक्ट्री में प्रवेश करने दिया। फैक्ट्री में पहुँच कर मजदूरों ने काम आरम्भ नहीं किया। तब एच आर हैड बोले कि 11 बजे समाधान कर देंगे। कुछ नहीं हुआ। फिर वो साहब बोले कि श्रम विभाग से अधिकारी आयेंगे और वो बतायेंगे कि बोनस कितना बनता है। फिर साहब ने दो बजे का टाइम दिया। चार दिन की छुट्टी की बातें कर, दो बजे छुट्टी….

दो बजे खाकी और नीली वर्दीधारी ज्यादा हरकत में आये। पुलिस की तीन जिप्सी फैक्ट्री के अन्दर और 8 जिप्सी तथा एक बस फैक्ट्री के बाहर खड़ी थी। जबरन-सा फैक्ट्री से बाहर करने के बाद भी तीन बजे सड़क पर महिला मजदूर हिम्मत से पुलिस अधिकारियों से उलझ रही थी। दहशत स्थापित करने के लिये नीली वर्दीधारियों में से एक ने एक युवा पुरुष मजदूर को डण्डे मार कर हटाया। लेकिन, कम्पनी और मजदूरों का सम्बन्ध तो काम के बारे में, मात्र काम के बारे में होता है। मैनेजमेन्ट और वरकरों के रिश्ते सिर्फ काम के इर्दगिर्द होते हैं। कोई नातेदारी नहीं होती। पुलिस का प्रयोग कर मैनेजमेन्ट ने मजदूरों को फैक्ट्री के बाहर कर दिया परन्तु दिवाली बाद क्या? पुलिस जूते तो नहीं बनायेगी। लगता है कि 17 नवम्बर को फैक्ट्री खुलने पर मजदूर उत्पादन पर प्रभाव डालना आरम्भ करेंगे। बातचीत से यह भी लगा कि लखानी फुटवियर वरकर हड़बड़ी में कुछ करने की बजाय आराम से अपना समय लेंगे। इस सन्दर्भ में लखानी समूह की फैक्ट्रियों में अनुभव :

लखानी समूह में लम्बे समय से काम कर रहे परमानेन्ट मजदूर नहीं हैं। कारण क्या है? कारण है लखानी मैनेजमेन्ट द्वारा यूनियनों से साँठगाँठ कर समय-समय पर सब परमानेन्ट मजदूरों को नौकरी से निकालना। लखानी फैक्ट्रियों में 1983 में सीटू यूनियन के जरिये हड़ताल करवा कर तब के सब परमानेन्ट मजदूरों को, 500 वरकरों को नौकरी से निकाला गया। इसी तरीके से 1988 में इन्टक यूनियन के जरिये तब के सब परमानेन्ट मजदूर, 800 वरकर निकाले गये थे। फिर 1996 में एच एम एस यूनियन के जरिये हड़ताल करवा कर तब लखानी फैक्ट्रियों में कार्यरत सब परमानेन्ट मजदूर, 1400 वरकर नौकरी से निकाले गये थे। इधर बीस वर्ष से कम नौकरी वाले परमानेन्ट मजदूर ही लखानी समूह की फैक्ट्रियों में हैं और उनकी भी तनखा मात्र ग्यारह-साढे ग्यारह हजार रुपये है।

मजदूरों के अनुसार एडिडास कम्पनी का इस फैक्ट्री में काम मार्च 2019 से मार्च 2020 तक हुआ। लॉकडाउन में एडिडास इस फैक्ट्री से हटी और बीस प्रतिशत बोनस की राशि लखानी मैनेजमेन्ट के पास छोड़ कर गई।

कुछ और बातें :

लॉकडाउन-पूर्णबन्दी से पहले इस फैक्ट्री में जूतों के अपर की सिलाई दो शिफ्टों में होती थी। इधर 18 मई को फैक्ट्री खुली और लाइनें एक शिफ्ट में ही चलती हैं। मोल्डिंग और मिक्सिंग विभागों में पहले की ही तरह दो शिफ्ट। एडिडास हट गई है और अब लखानी नाम से ही उत्पादन होता है। इस फैक्ट्री में अपर सिलाई की लाइनें ही थी, जूता असेम्बली (लास्टिंग) लाइनें कम्पनी की हरिद्वार फैक्ट्री में थी। हरिद्वार से मशीनरी लाई गई है और जूता असेम्बली की चार लाइनें यहाँ शुरू हो गई हैं तथा दो-तीन लाइन बन रही हैं।

केन्द्र सरकार के आदेश के बावजूद लखानी मैनेजमेन्ट ने लॉकडाउन के दौरान अप्रैल माह की तनखा नहीं दी है। हरियाणा सरकार की घोषणा के बाद भी जनवरी से देय मँहगाई भत्ता लखानी मैनेजमेन्ट ने अभी तक नहीं दिया है। इधर तनखा हर महीने देरी से, 15-20 तारीख को, अक्टूबर का वेतन आज 12 नवम्बर तक वरकरों के बैंक खातों में नहीं भेजा है। ओवर टाइम की पेमेन्ट कानून अनुसार दुगुनी दर की बजाय डेढ़ की दर से लखानी मैनेजमेन्ट करती रही है। और, इधर तो सितम्बर में किये ओवर टाइम के पैसे भी आज, 12 नवम्बर तक नहीं दिये हैं। लॉकडाउन के बाद भर्ती ऑपरेटरों को हैल्परों वाली तनखा दी जा रही है।

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ताई की स्मृति में

##### ताई की स्मृति में #####

आज, 15 नवम्बर को ताईजी की मृत्यु हो गई। एक पीढी सम्पन्न-सी हो गई।

ताई के दो बटियाँ और पाँच बेटे हैं। ताई के पोते-पोतियों के सन्तान हैं।

ताई और मेरी माँ के पहली सन्तान 1941 में हई थी। माँ के दूध बहुत कम था और ताईजी के भरपूर था। ताई ने अपने बेटे के संग मेरी बहन को अपना दूध पिलाया। बहन कहती हैं : “ताई मेरी आधी माँ थी।” ताईजी मेरे पड़दादा के कुण्बे से थी।

## ताईजी के आधे जीवन में :

० ताई का जन्म राजस्थान में गाँव में हुआ था और विवाह पंजाब(हरियाणा) में गाँव में। ताई की आधी उम्र तक गाँव से निकट वाली सड़क 16 मील दूर थी। यात्रा ऊँटों से अथवा पैदल।

० गाँव में हाल्ई-पालई का बोलबाला था। गाय बहुत थी और भैंस इक्कि-दुक्की। जातियों में भेदभाव था। अमीर-गरीब वाली बात कम थी। गाँव के बाहर गाँववाले एक थे। किसी गाँव में कोई जाता तब उस गाँव में ब्याही लड़कियों के घर जा कर एक रुपया देने का रिवाज था। गाँव की बरात भी ऐसा करती थी। उस समय एक रुपया महत्वपूर्ण था।

० दूध-दही-लाह्सी और घी खान-पान में थे। दूध नहीं बिकता था। दूध बेचा मानी पूत बेचा वाली बात थी। ब्याह में घी-बूरा के साथ चावल का रिवाज था। खुड्डियों की छान जमीन पर तैयार करते थे। ऊपर उठा कर खुड्डी पर रखने के लिये जेलियों के साथ चालीस-पचास लोग लगते थे। मिल कर यह करते थे। ल्हास वाली बात भी थी। हल जोतने अथवा फसल काटने पन्द्रह-बीस लोग इक्ट्ठे जाते थे। दिहाड़ी वाली बात नहीं थी। ल्हासियों को रात को घी-बूरा का चलन था।

० गाँव की बणी बड़ी थी और गाँव के चारों तरफ पेड़-पौधों से भरपूर जोहड़ थे। पीने के पानी के लिये बणी में गाँव से करीब एक मील दूरी पर तल्आ था। पक्का था। बणी को साफ रखने का ध्यान पूरा गाँव रखता था। बहुयें सज-धज कर, टूम पहन कर तल्आ से पानी लाती थी और साथ में गाँव की बेटियाँ सिर पर घड़ा-टोकणी रखे गीत गाती थी। गर्मियों में तल्आ का पानी समाप्त हो जाता था और तब पीने के पानी की भारी समस्या हो जाती थी। गाँव में बहुत कूये थे पर उनमें पीने का पानी बहुत कम था। रात दो बजे कुओं पर नम्बर लगाने जैसी बात थी।

० गर्मियों में बणी मे जाल्ओं के पील्ए बहुत लगती थी। खेतों-जोहड़ों में जाँडियों के सांगर-खोखे और कैरों के पिन्जू लगते थे।

० गाँव में सिमाणा बदल-बदल कर वर्ष में साढ-सावन में बाजरा-मूंग-मोठ-ग्वार बोते थे। काकड़ी-मतीरे-काचरी इनमें बहुत होते थे। सर्दियों में दूसरे सिमाणे में चने-सरसों बोते थे। मूली घर के लिये।

० पशुओं के लिये साल में कुछ महीने चारे की बहुत दिक्कत होती थी। ताई और माँ सहेलियों तथा बेटियों के साथ बगल के गाँवों तक की सीमा से घास खोद कर डेढ़-दो मन की भरोटी सिर पर लाती थी। अनाज ऊँटों से गाहते थे और हवा नहीं चलने पर खेतों में पैरों में अनाज महीने भी पड़ा रहता था।

० गाँव में लोगों के पास समय था। आदमी हुक्कों पर बैठते थे। आठ-दस इक्ट्ठी हो कर औरतें और लड़कियाँ चरखे कातती, चूनरियों पर गोटे-सितारे जड़ती थी। हँसना-बोलना बहुत होता था।

० ब्याह में ऊँटों पर बरात आती-जाती थी। तीन दिन रुकती थी। इस-उस घर में दो-चार ऊँट ठहराते थे। रोटियाँ मिल कर बनाते। गाँव वाले ही परोसते थे। रिश्तेदारी में सात-आठ दिन रुकना सामान्य था। बच्चों का नाना-मामा के गाँव में रहना होता था।

## इन पचास-पचपन वर्ष में बहुत-कुछ बदला है। पुराना मिट-सा गया है।

कुछ वर्ष पहले गाँव गया था तब तीन दादियाँ सिर पुचकार कर बोली थी : “बेट्टा ! गा गई। हेरण गया। आर बुड्डाँ की इज्जत गई।” परन्तु , ताई को बहुत आदर और प्यार जीवन की अन्तिम साँस तक मिला।

ताईजी ने भरपूर जीवन जीया।

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ऊँच-नीच और दमन-शोषण का महिमामण्डन | Glorification of hierarchies and oppression-exploitation

#### ऊँच-नीच और दमन-शोषण का महिमामण्डन ####
#### Glorification of hierarchies and oppression-exploitation ####

० उपमहाद्वीप में विद्वान इतिहासकारों ने स्वामी और दास सामाजिक गठन में स्वामियों की धारणाओं को “भारतीय संस्कृति” के तौर पर स्थापित करने के लिये अपने समय तथा ऊर्जा का बहुत व्यय किया है।

० उपमहाद्वीप में विद्वान इतिहासकारों ने बेगार प्रथा(सामन्तवाद) के एक शिखर पुरुष, अकबर को महान सिद्ध करने में अपना बहुत समय और ऊर्जा खर्च किये हैं।

० विद्वान इतिहासकार 1757 से 1947 के दौरान, उपमहाद्वीप में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी तथा ब्रिटिश सरकार के शासन को प्रगतिशील और मुक्तिकामी सिद्ध करने में अपना बहुत समय व ऊर्जा व्यय कर रहे हैं।

० इधर विद्वान लोग भारत सरकार के संविधान का, आज की मनुस्मृति का महिमामण्डन करने में अपना बहुत समय तथा ऊर्जा खर्च कर रहे हैं।

यह ज्ञानी स्वयं को वामपंथी कहते हैं, स्वयं को क्रान्तिकारी कहते हैं, स्वयं को दलित मुक्ति का हिरावल दस्ता कहते हैं।

#### Glorification of hierarchies and oppression-exploitation ####

० Learned historians in the subcontinent have spent a lot of their time and energy to establish slave-owners concepts in slave owning social organisations as “Indian culture”.

० Learned historians in the subcontinent have spent a lot of their time and energy to prove Emperor Akbar, an icon of corvee’ labour (feudalism), as the great.

० Learned historians are spending a lot of their time and energy to prove British East India Company and British government’s rule in the subcontinent from 1757 to 1947 as progressive and emancipatory.

० These days learned people are spending a lot of their time and energy to glorify the constitution of the state in India, today’s Manusmriti.

These wise ones call themselves leftists, they call themselves revolutionaries, they call themselves the vanguard of dalit emancipation. vf

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“मार्च-आरम्भ से अक्टूबर-आरम्भ 2020 के दौरान व्हाट्सएप पर मजदूर समाचार” पुस्तक।

मार्च-सितम्बर में पूर्णबन्दी के कारण ऑनलाइन आदान-प्रदान के प्रयास अधिक रहे। अँग्रेजी में यह अलग से एकत्र किये हैं। हिन्दी में मार्च-आरम्भ से अक्टूबर-आरम्भ के दौरान के व्हाट्सएप पर आदान-प्रदान के प्रयास यहाँ एकत्र किये हैं। तिथि अनुसार हैं।

लगता है कि यहाँ विश्व में सामाजिक मन्थनों की एक झलक मिलेगी।सम्भव है कुछ प्रस्थान-बिन्दु मिलें।

# आदान-प्रदान बढाने के लिये पुस्तक को अपने ग्रुपों में फॉर्वर्ड करें।

# दिल्ली और इर्द-गिर्द के औद्योगिक क्षेत्रों में स्थिति को देखते हुये अभी पुस्तक छापेंगे नहीं। व्हाट्सएप और ईमेल द्वारा इसे प्रसारित करेंगे। उपलब्ध अन्य माध्यमों द्वारा आदान-प्रदान बढाने में आप भी योगदान करें।

# आप स्वयं छापना चाहते हैं तो खुशी-खुशी छापें। ए-4 साइज के 179 पन्ने हैं।

# पढते समय जो त्रुटियाँ मिलें वो बताना ताकि छापने से पहले हम उन गलतियों को दूर कर सकें।

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मजदूर समाचार पुस्तिका चौदह

“मजदूर समाचार पुस्तिका चौदह” का आनन्द लें।

जनवरी 2008 से दिसम्बर 2008

सम्भव है
कुछ प्रस्थान-बिन्दु मिलें।

# आदान-प्रदान बढाने के लिये अपने ग्रुपों में फॉर्वर्ड करें।

# दिल्ली और इर्द-गिर्द के औद्योगिक क्षेत्रों में स्थिति को देखते हुये अभी पुस्तिका छापेंगे नहीं। व्हाट्सएप और ईमेल द्वारा इसे प्रसारित करेंगे। उपलब्ध अन्य माध्यमों द्वारा आदान-प्रदान बढाने में आप भी योगदान करें।

# आप स्वयं छापना चाहते हैं तो खुशी-खुशी छापें। ए-4 साइज के 45 पन्ने हैं।

# पढते समय जो त्रुटियाँ मिलें वो बताना ताकि छापने से पहले हम उन गलतियों को दूर कर सकें।

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तन और मन। तन, मन, और गति। तन, मन, गति, और अधिक गति।

तन और मन।
तन, मन, और गति।
तन, मन, गति, और अधिक गति।
मजदूर समाचार के अगस्त तथा सितम्बर 2009 अंकों से तन तथा मन के स्वास्थ्य के सन्दर्भ में “रफ्तार और स्वास्थ्य” प्रस्तुत हैं।

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वसन्त 2025

लगता है कि शीर्षक “” अधिक उपयुक्त होता। परन्तु सामग्री मजदूर समाचार के जनवरी 2013 अंक से है और शीर्षक “मार्च 2016” है।

इन सात वर्षों में गति तथा विस्तार चकित करने वाले रहे हैं।

इधर विश्व में उल्लेखनीय क्षेत्रों में पूर्णबन्दी ने सामाजिक पहलू को, वैश्विक सामाजिक पहलू को साफ-साफ सामने ला दिया है। व्यक्ति को इस-उस बात के लिये दोष देना स्वाहा हो गया है। व्यक्ति द्वारा स्वयं को दोष देना अब खुद को धोखा देने के काम का भी नहीं रहा।

विश्व का अखाड़ा होना, धुरी का वैश्विक होना इतना साफ हो गया है कि इस-उस देश को अखाड़ा/धुरी लेना हँसी-मजाक ही रह गया है।

हमें लगता है कि सात वर्ष पहले की सामग्री में आनन्द आयेगा। आनन्द लें।

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रै ये प्रगति आर विकास के सैं ? आर के सै यो भ्रष्टाचार?

# प्रगति-विकास-भ्रष्टाचार एक-दूसरे से घनिष्ठता से जुड़े हैं। फिर भी, उल्लेखनीय समूहों में प्रगति-विकास को सकारात्मक और भ्रष्टाचार को नकारात्मक के अर्थों में लिया जाता है।

# कह सकते हैं कि स्वामियों और सामन्तों की क्रूरता की तुलना में दूर-दराज का व्यापार अपने संग क्रूरता की मात्रा तथा प्रकार में गुणात्मक भिन्नता लिये था। लगता था कि “अमरीका की खोज” से, 1492 से व्यापारिक हितों ने क्रूरता के नये पैमाने बना दिये हैं।

# परन्तु सन् 1800 से स्थापित हुई मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन वाली क्रूरता के वटवृक्ष के सम्मुख तो विगत की सब क्रूरतायें बौनी लगती हैं।

# इधर दुनिया में उल्लेखनीय क्षेत्रों में उल्लेखनीय समय तक सरकारों द्वारा पूर्णबन्दी ने, मैनेजमेंटों द्वारा लाखों फैक्ट्रियों में उत्पादन बन्द करने ने ऊँच-नीच के पार वाली नई समाज की रचनाओं की सम्भावनाओं को बढा दिया है।

इस सन्दर्भ में मजदूर समाचार के मार्च 2014 अंक से “?” यहाँ प्रस्तुत है। सम्भव है पढने पर कुछ प्रस्थान बिन्दु मिलें।

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पैसा सब कुछ है …. पैसा सब कबाड़ा कर रहा है।

पैसा सब कुछ है …. पैसा सब कबाड़ा कर रहा है।

इस सन्दर्भ में मजदूर समाचार के नवम्बर 2010 अंक से “रुपये का उत्पादन और वितरण” प्रस्तुत है।

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A Glimpse of Social Churnings

A Glimpse of Social Churnings

Attempts at conversational interactions during global Covid lockdowns.

47 pages booklet

A Majdoor Samachar
Kamunist Kranti presentation
September 2020

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