जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। अड़तालिसवें अंश, फरवरी 2009 अंक के सन्दर्भ में कुछ आवश्यक बातें यह लगती हैं :
मजदूर समाचार के अप्रैल 1998 अंक में “हकीकत का एक खाका” जिसे फरवरी 2009 अंक में दोहराया “आज उत्पादन का एक लेखा-जोखा” शीर्षक से। इसका अंश : हर क्षेत्र में आज पैसों के जुगाड़ के लिये कर्ज की भूमिका बढ़ती जा रही है। कम्पनियों में लगे पैसों में तो 80 से 90 प्रतिशत तक पैसे कर्ज के होते हैं। जमीन, बिल्डिंग, मशीनरी, कच्चा व तैयार माल गिरवी रहते हैं। बैंक, बीमा, पेन्शन फन्ड, म्युचुअल फन्ड तथा अन्य वित्तीय संस्थायें कर्ज के मुख्य स्रोत हैं।
कम्पनी में लगे दस-बीस परसैन्ट पैसों का जुगाड़ शेयरों के जरिये होता है। शेयर होल्डरों में भी प्रमुख हैं बैंक, बीमा, म्युचुअल फन्ड जो कि पचास-साठ प्रतिशत तक के शेयरों पर काबिज होते हैं। बाकी के शेयर हजारों फुटकर शेयर होल्डरों के अलावा कुछ कम्पनियों के हाथों में होते हैं।
उत्पादन और अन्य क्षेत्रों में अब विश्व में कम्पनी स्वरूप सामान्य है। ऐसे में भारत सरकार के क्षेत्र में 2008-2009 में सत्यम कम्प्यूटर्स कम्पनी घटना उद्योग में, मीडिया में छाई थी तब मजदूर समाचार के फरवरी 2009 अंक में अप्रैल 2002 अंक से “एनरॉन के बहाने” को ही पुनः छापा था।
कम्पनियाँ किसी की नहीं होती। कम्पनियों का कोई मालिक नहीं होता। ऐसे में कम्पनियों का सुचारू संचालन कैसे सुनिश्चित किया जाये? विद्वानों ने नुस्खा दिया : चेयरमैन, मैनेजिंग डायरेक्टर, चीफ एग्जेक्युटिव अफसर आदि बड़े अधिकारियों को वेतन के एक हिस्से के रूप में कम्पनी के शेयर दिये जायें ताकि कम्पनी को मुनाफे में रखना और मुनाफे को बढाना साहबों के निजी स्वार्थ में हो। विश्व की बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ विद्वानों के नुस्खे पर अमल कर रही हैं और इसका चलन छोटी कम्पनियों में भी तेजी से बढ़ रहा है।
स्वार्थ की कुँजी कमाल कर रही है। अधिकतर कम्पनियाँ अपने बही-खातों में हेरा-फेरी कर रही हैं। हिसाब-किताब में नटबाजी कर मनमाफिक मुनाफे दिखाये जाते हैं। और, महीने के लाखों लेते साहब लोग शेयरों की सट्टेबाजी में करोड़ों जेब में डालते हैं।
इधर बिजली क्षेत्र की विश्व की एक महारथी, एनरॉन कम्पनी द्वारा स्वयं को दिवालिया घोषित कर देने ने पर्दों की कुछ परतें उठाई हैं।
अमरीका के राष्ट्रपति, इंग्लैण्ड के युवराज को चन्दे देती एनरॉन कम्पनी द्वारा यहाँ नेताओं-अफसरों को पुचकार कर पर्यावरण का कबाड़ा करती डाभोल बिजली परियोजना और उसकी बिजली के ऊँचे रेट लेना अखबारों की खबरों में रहे हैं। एनरॉन के बही-खातों की जाँच की जिम्मेदार ऑडिट क्षेत्र की मशहूर एन्डरसन कम्पनी रही है। लगातार ऊँचे मुनाफे दिखाती एनरॉन के दिवालियेपन ने “घोटाला” के शोर-शराबे के बीच एनरॉन व एन्डरसन कम्पनियों की जाँच के लिये कई संसदीय समितियाँ बना दी गई हैं। और जिक्र कर दें, अमरीकी संसदों के 248 सदस्य जाँच समितियों में हैं — दूध का दूध और पानी का पानी करने वाले इन 248 संसद सदस्यों में से 212 ने तो एनरॉन अथवा एन्डरसन कम्पनी से चन्दे लिये हैं!
खैर। मण्डी का भँवर महारथियों को नहीं पहचानता और एनरॉन को घाटे पर घाटा होने लगा। मुर्गी ने अण्डे देना बन्द कर दिया तो साहब लोगों ने मुर्गी को काट खाने का निर्णय लिया। एनरॉन और एन्डरसन के अधिकारियों ने बही-खातों की खिचड़ी में भारी मुनाफे दिखा कर एनरॉन शेयरों के सट्टा बाजार में भाव प्रति शेयर 4 हजार रुपये तक पहुँचा दिये। एनरॉन के 29 बड़े साहबों ने अपने शेयर बेच कर तब 5500 करोड़ रुपये अपनी जेबों में डाले। एनरॉन की एक शाखा के अध्यक्ष ने 1750 करोड़ रुपये और एनरॉन के चीफ एग्जेक्युटिव अफसर ने 500 करोड़ रुपये इस प्रकार प्राप्त किये। बुलबुला फूटने पर एनरॉन के शेयरों का भाव 4 हजार रुपये प्रति शेयर से लुढक कर दस-बारह रुपये प्रति शेयर पर आ गया।
कम्पनी के दिवालिया होने में भी साहबों ने चाँदी कूटी पर एनरॉन के हजारों कर्मचारियों की पेन्शनें भी डूब गई नौकरियाँ तो गई ही।
चन्द अन्य उदाहरण : कॉर्निग कारपोरेशन के अध्यक्ष ने कम्पनी के अपने शेयर बेच कर 70 करोड़ रुपये जेब में डाले जिसके बाद शेयरों के भाव 85 प्रतिशत गिर गये; जे डी एस यूनिफेज के सह-अध्यक्ष द्वारा शेयर बेच कर 115 करोड़ रुपये जेब में डालने के बाद कम्पनी के शेयरों के भाव 90 प्रतिशत गिर गये; प्रोविडेन्शियल फाइनैन्स के उपाध्यक्ष ने अपने शेयर बेच कर 70 करोड़ रुपये जेब में डालने के बाद बताया कि बही-खाते ठीक से हिसाब नहीं दिखाते और इस पर 3 हजार रुपये प्रति शेयर का भाव गिर कर 200 रुपये प्रति शेयर हो गया …
और, फ्रान्स में तो कम्पनियों के चेयरमैनों, मैनेजिंग डायरेक्टरों की भयंकर वित्तीय अपराधों में गिरफ्तारियाँ लगभग रुटीन, सामान्य बात बन गई है …
(उपरोक्त सामग्री मजदूर समाचार, अप्रैल 2002 से।)
(मजदूर समाचार, फरवरी 2009)