जनवरी 2010 से फरवरी 2020 अंकों पर आधारित “सतरंगी” छापने के पश्चात अब मजदूर समाचार के जनवरी 2005 से दिसम्बर 2009 अंकों की सामग्री से पुस्तक “सतरंगी-2” तैयार कर रहे हैं। तीसवाँ अंश सितम्बर 2008 अंक से है।
● बात प्यास से शुरू करते हैं। लगता है पृथ्वी पर जल से – जल में ही जीवन आया है। हमारे शरीर के लिये पानी बहुत महत्वपूर्ण है। प्यास लगना शरीर की जल के लिये पुकार होती है। प्यास बुझाने में जो आड़े आयें उन से पार पाने के प्रयास सहज क्रिया हैं। झिझकें नहीं, कुछ पेय प्यास को मारते हैं, तन में जल की कमी करते हैं, इन से बचना बनता है।
● भूख के जरिये शरीर दर्शाता है कि भोजन की आवश्यकता है। बिना भूख भोजन करना शरीर को परेशान करना है। और भूख लगने पर नहीं खाना … यह ध्यान में रखने की जरूरत है कि शरीर प्रतिदिन औसतन तीन लीटर तेजाब बनाता है। इसलिये भूख लगने पर भोजन नहीं करना पेट में घाव व अन्य रोगों को दावत देना है। “भूख नहीं है पर फिर भी भोजन करो” और “भूख लगी है पर रुको, समय होने दो” वाली बाधाओं को पहचानने की आवश्यकता है।
● पेशाब करने जैसी बात आज कितने गुणा-भाग लिये है यह चिन्तन की बात है। पेशाब के लिये अनुमति? पेशाब के लिये स्थान? पेशाब करने के लिये पैसा? पेशाब शरीर से अनावश्यक व हानिकारक तत्वों को बाहर निकालने का सहज साधन है। पेशाब रोकना शरीर का सन्तुलन बिगाड़ने के संग पथरी का खतरा लिये है।
● और, अब गन्दी कही जाने वाली टट्टी। हर व्यक्ति के शरीर में हर समय टट्टी रहती है … भोजन-पाचन-निकास शरीर की सहज क्रिया है। टट्टी को लज्जा की वस्तु बनाना, टट्टी के लिये समय निर्धारित करना, टट्टी लगने पर रोकना तन
और मन, दोनों के लिये आफत हैं। राहत के लिये स्कूल-दफ्तर-फैक्ट्री-बस-लोकल ट्रेन की तानाशाही में दरारें डालने के प्रयासों के संग-संग सोच बदलना भी आवश्यक है।
● पसीने से परहेज, ए सी की कामना रोगों का भण्डार है। पसीना शरीर की सफाई का एक महत्वपूर्ण जरिया है। पाउडर-क्रीम और एयरकन्डीशनर से बचना बनता है।
● सूर्योदय और सूर्यास्त दिन व रात की सीमायें हैं और शरीर रात को सोने के लिये ढला है। रात को अन्धेरे में नींद स्वास्थ्य के लिये अति आवश्यक है। रोशनी नींद के लिये हानिकारक है। रात को नींद में बाधक मजबूरियों आदि की पड़ताल आवश्यक है।
● थकान सन्देश होता है विश्राम के लिये। आराम की जरूरत महसूस हो उस समय स्वयं को हाँकना लफड़े लिये है। यूँ भी विश्राम जीवन में रंगत लाता है।
● जीव अवस्था अनुसार तन की महक लिये रहते हैं। यह महक तन-मन की सहज क्रिया का परिणाम होती है। सम्बन्धों में यह महकें एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। साबुन-इत्र-अन्य रसायन इन महकों को मिटाते, छिपाते, बदलते हैं इसलिये इन से बचना चाहिए।
● चिड़िया घौंसले में कम ही रहती हैं। मनुष्य का स्वभाव भी इमारतों के अन्दर रहने का नहीं है। बाहर खुले में जितना विचरण कर सकें अच्छा है। प्राण-साँस के लिये खुले में रहने से बेहतर कुछ नहीं है और फिर, सीमेन्ट-स्टील-पेन्ट की इमारतें तो वैसे भी बीमारी का घर हैं।
● अधिक समय खड़े रहना और अधिक समय बैठे रहना, दोनों ही स्थितियाँ हमारे अस्थिपंजर को विकृत कर देती हैं। रीढ की हड्डी का तो बाजा ही बज जाता है। बन्दर के बच्चे हमारे लिये उदाहरण होने चाहियें। वैसे हमारे शिशु भी कोई कम नहीं हैं। महत्वपूर्ण प्रश्न हैं : कार्यस्थलों और टी वी रूमों का क्या करना चाहिये?
● मनुष्यों ने दीर्घकाल तक बिना वस्त्रों के सहज जीवन व्यतीत किया है। यूँ भी, बिना वस्त्रों के शरीर सुन्दर है। वस्त्र एक बोझ तो हैं ही फिर भी, वस्त्र पहनने ही हैं तो कम-से-कम कष्ट देने वाले कपड़े पहनें।
● सामान्य तौर पर इच्छा-पसन्द-उमंग जीवन की तरंग हैं। कई रंगों का होना जीवन को सहज ही आनन्ददायक बनाता है। एकरूपता कैसी भी हो, उससे उकताना-बिदकना स्वाभाविक है। यह बात गाँठ में बाँधने वाली है कि बारम्बार एक ही तरह से पैर की दाब देना, एक ही ढंग से हाथ चलाना, एक ही प्रकार का बोलना-चालना नीरसता की कुंजी है। मुहावरा पुराना है पर कोल्हू का बैल बने जीवन में फच्चर डालना उमंग के लिये जगह बनाना है।
● जीवन में बचपन, युवावस्था, वृद्धावस्था स्वाभाविक हैं। इन के अपने-अपने दौर और खासियतें हैं। बचपन को सिकोड़ना, युवावस्था को लम्बा करना, वृद्धावस्था से भय खाना और उसे नकारना-छिपाना सब के लिये आफत ही आफत लिये हैं। अपने बच्चों के बचपन को छीनने से बचने के कुछ प्रयास तो कोई भी कर सकती-सकता है। ठीक है ना?
● सामान्य तौर पर तो सहज क्रियाओं में बाधा पड़ने पर ही हम बीमार पड़ते हैं। विश्राम उपचार के बेहतरीन तरीकों में है। शरीर को समय दीजिये। तन और मन की सुनिये। लाखों-करोड़ों वर्ष का अनुभव है जीवन का स्वयं को ठीक करने का। जहाँ तक हो सके दवाओं से बचें। दवाईयाँ अक्सर एक पहलू पर ध्यान केन्द्रित कर उपचार के दौरान अन्य बीमारियाँ संग लिये हैं।
सम्बन्धों और मन की कुछ सहज बातें आगे फिर कभी।
(मजदूर समाचार, सितम्बर 2008)