●बांग्ला पत्रिका “मजदूर मुक्ति” के सम्पादक गौतम सेन की 25 मई को 73 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई। गौतम सेन को याद करते हुये स्मृति में शेष 1986-1996 के दौरान के चलचित्र के कुछ अंश प्रस्तुत हैं। भूल-चूक होंगी ही परन्तु भावार्थ में कठिनाई शायद नहीं होगी।
# 1975 से 1981के दौरान “घुमक्कड़ क्रान्तिकारी” की भूमिका की सम्भवतः यह प्रतिक्रिया थी कि 1982 में मजदूर समाचार के प्रकाशन के आरम्भ से जून 1984 में छापना रोकने तक फरीदाबाद के बाहर ना के बराबर निकले।
# और ढाई वर्ष में फैक्ट्री मजदूरों के आचार-विचार ने मजदूर समाचार के लेनिनवादी आधार की धज्जियाँ उड़ा दी थी।
# बहुत सारे प्रश्न। प्रकाशन रोकने के बाद एक वर्ष अध्ययन, मनन-मन्थन। 1986 में हिन्दी तथा अँग्रेजी में “कम्युनिस्ट क्रान्ति” छापी। मजदूर समाचार की नई सीरीज आरम्भ की और अनिवार्य बनी यात्रायें, विशेषकर औद्योगिक क्षेत्रों की।
# नये निष्कर्ष में मजदूरों का महत्व बहुत बढा था परन्तु एक्टिविस्टों/क्रान्तिकारियों का महत्व कम नहीं हुआ था। यूँ भी अधिकतर सम्पर्क अनेक धड़ों में बँटे सक्रिय/निष्क्रिय माओवादियों, ट्राटस्कीवादियों, शुद्ध लेनिनवादियों (माओ, ट्राटस्की, स्तालिन की भर्त्सना करनेवाले) से थे। वैसे, शुद्ध मार्क्सवादी भी हैं जो वर्तमान की कठिनाइयों से पार पाने के लिये वापस वेदों में-वापस बाइबल में-वापस कुरान में की तर्ज पर वापस मार्क्स में का राग अलापते हैं।
●1986 से यात्रायें :
# दिल्ली विश्वविद्यालय में माओवादी प्रोफेसर सिद्धान्तकार, स्तालिनवादी प्रोफेसर विजय सिंह, माओ से ट्राटस्की से गांधी वाले प्रोफेसर दिलीप सिमियन से मिलने, और कनॉट प्लेस के पास भगत सिंह मार्केट में जोगेन सेनगुप्ता के घर जाना। जोगेन नक्सलबाड़ी उभार के समय बंगाल में पढाई छोड़ कर क्रान्ति में जुटने वालों में थे। बिखराव में वे अराजकतवाद की तरफ गये। जोगेन का घर दिल्ली-भर के अनेक प्रकार के एक्टिविस्टों का अड्डा था। भारत-भर के, बल्कि दुनिया-भर के एक्टिविस्टों का दिल्ली में एक मीटिंग पॉइन्ट जोगेन का घर भी था।
# पंजाब में खन्ना (लुधियाना) तथा जालंधर में माओवादियों से मिलने। कानपुर में आई.आई.टी. में प्रोफेसर डॉ. ए.पी. शुक्ला, जिन्हें माओवादी के तौर पर जेल जाना पड़ा, और ट्राटस्की के प्रचारक आरएसपी लीडर प्रोफेसर राजनारायण आर्य से मिलने। बस्ती(गोरखपुर) में शुद्ध लेनिनवादी (आरएसपीआई-एमएल से अलग हुये इन्कलाबी सर्वहारा मंच के) एडवोकेट कुलदीप शुक्ला से मिलने। धनबाद कोयला खदानों के मजदूरों के भुली निवास स्थल पर माओवादी मजदूर सुखदेव सोनार और मुनिडीह माइन्स में शुद्ध लेनिनवादी (आरएसपीआई-एमएल) मजदूर सोमनाथ मिश्र से मिलने। राउरकेला स्टील सिटी में जनतांत्रिक अधिकार एक्टिविस्ट शुभेन्दु रथ और स्टील प्लांट वरकरों से मिलने। बोकारो स्टील सिटी में हिन्दुस्तान स्टील कन्स्ट्रक्शन में एक यूनियन के लीडर गोरख नाथ सिंह और एन.के.सिंह तथा स्टील प्लांट वरकरों से मिलने। यूनियन लीडर माओवादी थे और अपने लीडर से मिलवाने बनारस भी ले गये थे — पंजाब से आ कर बनारस को कार्यक्षेत्र बना लेने वाले उस मित्र का नाम ध्यान में नहीं आ रहा। दुर्गापुर स्टील सिटी में माओवादी उभार के समय पढाई छोड़ने वाले सोमेन उपाध्याय से मिलने, जो फिर बैंक में नौकरी करने लगे थे। सोमेन बीरभूम ले गये थे किशन चटर्जी से मिलवाने। किशन जी ने 1967 में पढाई छोड़ कर बीरभूम में माओवादी संगठनकर्ता के तौर पर ख्याति अर्जित की थी। कई वर्ष जेल के बाद वे बीरभूम जिले में अपने गाँव में रह रहे थे। किशन जी ले गये थे बरहामपुर तापस दासगुप्ता से मिलवाने। तापस भी माओवादी के तौर पर जेल में रहे थे। किशन जी ने ही कोलकाता में दीपांजन राय चौधरी से मिलवाया।
# प्रेसीडेंसी कॉलेज के छात्र दीपांजन नक्सलबाड़ी उभार के समय पढाई छोड़ कर माओवादी आन्दोलन में सक्रिय हुये थे। परिवार के दबाव में इंग्लैण्ड पढने गये। सरकार ने पकड़ो और मारो की नीति से 1967 वाला माओवादी उभार दबा दिया था। इंग्लैण्ड से लौट कर दीपांजन कलकत्ता विश्वविद्यालय में पढाने लगे थे। अनेक ग्रुपों में बँट गये माओवादियों के लाँछन झेलते, मनन-मन्थन करते, संयम और लगन से दीपांजन आदान-प्रदान जारी रखे थे। दीपांजन जी ने अतुल दास से मिलवाया। एक बड़ी फैक्ट्री (शायद गैस्ट कीन विलियम्स) में यूनियन लीडर अतुल दास नक्सलबाड़ी नेतृत्व के आह्वान पर क्रान्ति के लिये शहर छोड़ कर गाँव-जंगल के लिये निकल पड़े थे। घाटशिला की ताम्बा खान क्षेत्र में वे सक्रिय हुये। पकड़े गये। जेल। अतुल जी रेलवे वरकर भी रहे थे, सक्रियता 1960 में (शायद केरल में) जेल ले गई। नौकरी से निकाले जाने पर कलकत्ता लौटे थे। डम डम रोड़ पर परिवार के साथ रहते अतुल जी दीपांजन के साथ मिल कर आयु के उस मोड़ पर भी क्रान्ति के लिये सक्रिय थे। अतुल जी ने मुझे अपने घर पर रखा और नक्सलबाड़ी उभार से उत्पन्न हुये तथा ग्रुपों में सक्रिय अनेक लोगों से मिलवाया। वे गौतम सेन से मिलवाने उनके घर ले गये थे।
# 1988-92 में माओवादी पृष्ठभूमि के कलकत्ता में एक अपवाद के तौर पर, फैक्ट्री मजदूरों में सक्रिय, हिन्दी-बांग्ला में “श्रमिक इस्तेहार” निकालते लोगों से अतुल जी ने कई बार मिलवाया। हिन्दुस्तान लीवर फैक्ट्री में वे सक्रिय थे। एक-दूसरे की विरोधी सीटू और इन्टक यूनियनों को उनके विरुद्ध गठजोड़ बनाना पड़ा था। 1987 में यूनियन चुनाव में उस गठजोड़ का सफाया और “श्रमिक इस्तेहार” का पूरा पैनल विजयी। हिन्दुस्तान लीवर मैनेजमेन्ट ने नये यूनियन नेतृत्व को मान्यता नहीं दी। कोर्ट-कचहरी। कलकत्ता हाई कोर्ट ने 20 अक्टूबर 1987 को यूनियन के चुनाव करवाने का आदेश दिया और इसके लिये दो स्पेशल अधिकारी नियुक्त किये। मैनेजमेन्ट ने चुनाव नहीं होने दिया। हाई कोर्ट ने दो नये स्पेशल अधिकारी नियुक्त कर 28 जनवरी 1990 को फैक्ट्री से बाहर चुनाव करवाने का आदेश दिया। चुनाव नहीं हुये। कलकत्ता हाई कोर्ट यूनियन चुनाव की तारीख तय करता रहा और चुनाव नहीं हुये। हाई कोर्ट द्वारा तय आठवीं तारीख पर, 8 मई 1992 को हिन्दुस्तान लीवर फैक्ट्री में यूनियन के चुनाव हुये थे। इस सन्दर्भ में “श्रमिक इस्तेहार” का अपने प्रत्यक्ष अनुभवों का आंकलन तथा इस बारे में मजदूर समाचार का आंकलन एक-दूसरे के पूरी तरह विपरीत थे।
दीपांजन जी ने जिन बुद्धिजीवियों से मिलवाया उन में कलकत्ता विश्वविद्यालय में फिजिक्स के प्रोफेसर बुद्धदेव बागची और गणितज्ञ मित्रा के ही नाम याद हैं।
दो-तीन बार बीस-बीस दिन अतुल जी के घर रहा। बांग्ला के अक्षर पढने लगा था। कलकत्ता में चर्चाओं के परिणामों में एक वहाँ समूह में मार्क्स की “पूँजी” का अध्ययन आरम्भ होना भी था।
अतुल जी, दीपांजन जी और उनके परिवारों का प्रेम मेरी स्मृति में गहरे तक अंकित है — दीपांजन जी की पत्नी की आँखों में देखी आशंका भी स्मृति में है।
# 1988 में कम्युनिस्ट क्रान्ति के दूसरे अंक के प्रकाशन के बाद, “मार्क्सवादी कम्युनिस्ट आन्दोलन के सम्मुख मूल समस्यायें” विषय पर फरीदाबाद में तीन दिन की चर्चा आयोजित की गई थी। यात्राओं के दौरान चर्चायें करनेवाले जो मित्र पहुँचे उन में डॉ. ए.पी. शुक्ला और किशन चटर्जी भी थे। उन तीन दिनों की चर्चाओं में फिर यह उभर कर सामने आया कि एक्टिविस्ट-क्रान्तिकारी लोग फैक्ट्री मजदूरों की गतिविधियों से अनभिज्ञ-से थे। मार्क्स की पुस्तक “पूँजी” कम ही क्रान्तिकारी पढते थे। और, यह यहाँ की विशेषता नहीं लगती। यूरोप तथा अमरीका में वाम/अति वाम के जिन लोगों से वास्ता पड़ा, उनमें भी यह बातें थी। आवश्यकता को स्वीकारते हुये डॉ. शुक्ला ने तब जो कहा, “आयु के इस मोड़ पर पूँजी पढना सम्भव नहीं है।”, वह जैसे अभी की बात हो।
# दीपांजन जी ने क्रान्ति के सन्दर्भ में “फरीदाबाद मजदूर समाचार” की अपर्याप्तता के दृष्टिगत, भारत में हिन्दी क्षेत्रों के लिये मजदूरों के अखबार की आवश्यकता पर बल दिया। आवश्यकता को मूर्त करने के लिये प्रयास किये। वर्ष-भर के प्रयासों के फलस्वरूप भिलाई इस्पात की लोहा खदानों के क्षेत्र में जून 1991 में मीटिंग हुई। दल्ली राजहरा में शंकर गुहा नियोगी के आतिथ्य में 32 ग्रुपों के लोगों ने तीन दिन चर्चा की। अखबार निकालने का निर्णय हुआ। महीने में एक बार छापना। मजदूरों के संघर्षों की रिपोर्टें ही अखबार की सामग्री होगी। उस अखबार में विश्लेषण नहीं होंगे। हर ग्रुप अपने-अपने प्रकाशनों में अपने-अपने विश्लेषण करें। कानपुर, धनबाद, नागपुर आदि में मजदूरों के बीच बाँटने के लिये प्रतियों की सँख्या बताई गई। आरम्भ में महीने में बीस हजार प्रतियाँ छापने का निर्णय। सहमति के बिन्दुओं पर पुनः चर्चा नहीं की जायेगी। यह सब लिखा गया। सब ने, 32 ग्रुपों ने हस्ताक्षर किये। लिखी सहमति प्रसारित करना। उस सहमति के आधार पर नये लोगों से जुड़ने का आह्वान। कहाँ से छापना है, किसे यह जिम्मेदारी दी जाये आदि तकनीकी पहलुओं को तय करने के लिये तीन महीने बाद फिर दल्ली राजहरा में मिलना। … शंकर गुहा नियोगी परिणाम से इतने प्रसन्न हुये थे कि समापन के समय उन्होंने कहा कि पहले दो अंकों का खर्च उनका संगठन उठायेगा। गौतम सेन उस मीटिंग में थे।
— और तीन महीने बाद : पंजाब से पहली बार आये बन्दे ने सहमति के बिन्दुओं पर फिर चर्चा की माँग की। नहीं होगी कहने पर चुप हो गये। फिर बंगाल से आये एक ग्रुप ने कहा कि जल्दबाजी में उन्होंने हस्ताक्षर कर दिये थे, सहमति उनकी मजदूर-किसान एकता की बुनियाद के खिलाफ है, इसलिये फिर चर्चा हो। मना कर दिया। तब शंकर गुहा नियोगी के संगठन के एक बन्दे ने कहा कि सहमति के आधार पर तो यह फरीदाबाद मजदूर समाचार का अखबार होगा, सहमति के बिन्दुओं पर फिर चर्चा होनी चाहिये। इस पर मीटिंग समाप्त कर दी गई। भारत में मजदूरों का हिन्दी में अखबार का वह प्रयास विफल हुआ। तकनीकी बातें ही तय करनी हैं के दृष्टिगत कुछ लोग दूसरी बार की मीटिंग में नहीं आये थे। जो हुआ था उसकी जानकारी प्रयास में शामिल लोगों को देने के लिये पत्र तैयार किया ही था कि 28 सितम्बर 1991 को शंकर गुहा नियोगी की हत्या कर दी गई। वह पत्र हम ने एक महीने रोक कर भेजा था।
# नागपुर में अनेक वामपंथी संगठनों के भी अड्डे रहे हैं। माओवादी ग्रुप, शुद्ध लेनिनवादी, अराजकतावादी नागपुर में मिलते थे। नीता मूर्ति, शंकर, और उनके मित्रों ने एक माओवादी संगठन से अलग हो कर लेनिनवादी पत्रिका “चिंगारी” आरम्भ की थी (और फिर अराजकतावाद की तरफ चले गये थे।) उन से तथा अन्य वामपंथियों से मिलने नागपुर जाना। फरवरी 1992 में “कम्युनिस्ट आन्दोलन के सम्मुख चुनौतियाँ” विषय पर चर्चा के लिये नागपुर में भारत-भर से अनेक संगठनों के लोग पहुँचे थे। चर्चा में “कम्युनिस्ट क्रान्ति” ने लिखित सामग्री प्रस्तुत की थी।
# छात्र मित्रों ने मुम्बई में माओवादी, ट्राटस्कीवादी, अराजकतावादी लोगों से मिलवाया।
— हिन्दुस्तान लीवर की सिवड़ी स्थित फैक्ट्री पर यूनियन के जरिये माओवादी दबदबे को समाप्त करने के लिये मैनेजमेन्ट ने 1988 में तालाबन्दी की थी। लॉक आउट बहुत लम्बी चला कर मैनेजमेन्ट ने यूनियन को इतना कमजोर कर दिया था कि प्रधान और महासचिव की सिवड़ी में गोदामों पर ड्युटी लगा सकी थी। गोदामों पर उन बहुत तेजतर्रार वरकरों से लम्बी बातचीत हुई थी। तालाबन्दी के उनके अपने अनुभव और फरीदाबाद में फैक्ट्रियों में तालाबन्दी के अनुभवों ने चर्चा को बहुत रोचक बना दिया था। परन्तु मालिक का स्थान कम्पनी द्वारा लेने के अर्थ की बात उठते ही वे बोले थे कि यह सिद्धान्त की बातें हमारे लीडरों से करें। उनके लीडर एक माओवादी संगठन के नेता थे। उस माओवादी ग्रुप का तब बॉम्बे यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स में दबदबा था और वहाँ उन से चर्चा को, चर्चा के प्रयासों को कॉमिक ही कह सकते हैं।
— मुम्बई में ट्राटस्कीवादियों के एक ग्रुप के एक बन्दे ने पहली मुलाकात में कहा कि ट्राटस्कीवाद भी कप्तान-कर्नल-जनरल वाली सेना के खिलाफ है। टोकने पर, रूस में कर्नल-जनरल वाली स्थाई सेना(लाल सेना) के गठन में ट्राटस्की की महत्वपूर्ण भूमिका पर वे बोले थे कि अगली बातचीत में वे दस्तावेजी सबूत पेश करेंगे। कुछ दिन बाद हुई अगली मुलाकात में, स्थाई सेना पर बात के हमारे प्रयासों को विफल करने के लिये उन्होंने बहुत बहाने किये थे। बातें की ही नहीं। मुम्बई में तब वकीलों और पत्रकारों में ट्राटस्कीवादी सक्रिय थे। और, 1992 में नागपुर में चर्चा में भी स्टैंडिंग आर्मी के प्रश्न से मुम्बई के ट्राटस्कीवादी ग्रुप का वक्ता कन्नी काट गया था।
— कमानी ट्यूब्स फैक्ट्री की मैनेजमेन्ट मजदूरों के हाथों में होने के किस्से 1988-90 के दौरान एक्टिविस्टों में चर्चा में थे। संयोग से एक चर्चा में हिस्सा लेने के लिये कमानी फैक्ट्री समय से कुछ पहले हम पहुँच गये थे। फैक्ट्री गेट से कुछ दूर बैठा मजदूरों का एक समूह नारे लगा रहा था। मेहमानों की अगवानी के लिये उपस्थित कमानी फैक्ट्री वरकर से पूछा तो उसने दुख के साथ बताया था : फैक्ट्री की मैनेजमेन्ट अपने हाथों में लेने के लिये यूनियन ने बीमार कम्पनियों को देखती केन्द्र सरकार की संस्था को योजना दी थी।कम्पनी को स्वस्थ करने के लिये यूनियन द्वारा बनाई योजना में बड़ी सँख्या में मजदूरों को नौकरी से निकालना; पाँच वर्ष तक वेतन में कोई वृद्धि नहीं करना जैसी बातें हैं। इसलिये मजदूर यूनियन से खार खाये हुये हैं। कमानी फैक्ट्री के कुछ मजदूर शिव सेना की यूनियन से जुड़ गये हैं। वो मजदूर नारे लगा रहे हैं।
— अपने घर पर हो रही अपनी साथी से चर्चा को मात्र सुन रहा एक अराजकतावादी बन्दा बातचीत की सामग्री से इतना भड़क गया था कि अपना सन्तुलन बनाये रखने में असफल रहा था।
# पुणे में छात्र मित्र ने लाल निशान पार्टी (लेनिनवादी) के नेता अशोक मनोहर से मिलवाया था। अशोक जी पुणे में फैक्ट्री मजदूरों के बीच सक्रिय थे। अनुभवों पर चर्चा रोचक रही थी : पुणे और फरीदाबाद में फैक्ट्री मजदूरों की बातें एक जैसी पाई थी। लेकिन, जैसे ही इन बातों के अर्थ की बात आई, आंकलन एक-दूसरे के इतने विपरीत थे कि बातचीत ही बन्द हो गई थी। अशोक जी के कार्यालय में मार्क्स, लेनिन, स्तालिन, माओ, शिवाजी, अम्बेडकर के चित्र स्मृति में हैं।
## एक्टिविस्ट लोग व्यक्ति की बजाय एक सामाजिक समूह की अभिव्यक्ति लगने लगे। एक्टिविस्टों की भाषा पन्थ की भाषा की तरह लगने लगी थी, पाँच प्रतिशत की भाषा लगने लगी थी। पिचानवे प्रतिशत की बोली-भाषा को अपनाने की दिशा में मजदूर समाचार बढा। 1993 से एक्टिविस्टों से मिलने के लिये यात्रा करना हम ने बन्द-सा कर दिया। स्वयं मिलने आने वाले एक्टिविस्टों का स्वागत करना जारी रखा।
## गौतम सेन से बीस वर्ष बाद, रेडिकल नोट्स द्वारा दिल्ली में 2014 में आयोजित चर्चा में मुलाकात हुई। उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं था। उनसे यह अन्तिम मिलना रहा।
— 27 मई 2021
मजदूर समाचार/कम्युनिस्ट क्रान्ति