##### ताई की स्मृति में #####
आज, 15 नवम्बर को ताईजी की मृत्यु हो गई। एक पीढी सम्पन्न-सी हो गई।
ताई के दो बटियाँ और पाँच बेटे हैं। ताई के पोते-पोतियों के सन्तान हैं।
ताई और मेरी माँ के पहली सन्तान 1941 में हई थी। माँ के दूध बहुत कम था और ताईजी के भरपूर था। ताई ने अपने बेटे के संग मेरी बहन को अपना दूध पिलाया। बहन कहती हैं : “ताई मेरी आधी माँ थी।” ताईजी मेरे पड़दादा के कुण्बे से थी।
## ताईजी के आधे जीवन में :
० ताई का जन्म राजस्थान में गाँव में हुआ था और विवाह पंजाब(हरियाणा) में गाँव में। ताई की आधी उम्र तक गाँव से निकट वाली सड़क 16 मील दूर थी। यात्रा ऊँटों से अथवा पैदल।
० गाँव में हाल्ई-पालई का बोलबाला था। गाय बहुत थी और भैंस इक्कि-दुक्की। जातियों में भेदभाव था। अमीर-गरीब वाली बात कम थी। गाँव के बाहर गाँववाले एक थे। किसी गाँव में कोई जाता तब उस गाँव में ब्याही लड़कियों के घर जा कर एक रुपया देने का रिवाज था। गाँव की बरात भी ऐसा करती थी। उस समय एक रुपया महत्वपूर्ण था।
० दूध-दही-लाह्सी और घी खान-पान में थे। दूध नहीं बिकता था। दूध बेचा मानी पूत बेचा वाली बात थी। ब्याह में घी-बूरा के साथ चावल का रिवाज था। खुड्डियों की छान जमीन पर तैयार करते थे। ऊपर उठा कर खुड्डी पर रखने के लिये जेलियों के साथ चालीस-पचास लोग लगते थे। मिल कर यह करते थे। ल्हास वाली बात भी थी। हल जोतने अथवा फसल काटने पन्द्रह-बीस लोग इक्ट्ठे जाते थे। दिहाड़ी वाली बात नहीं थी। ल्हासियों को रात को घी-बूरा का चलन था।
० गाँव की बणी बड़ी थी और गाँव के चारों तरफ पेड़-पौधों से भरपूर जोहड़ थे। पीने के पानी के लिये बणी में गाँव से करीब एक मील दूरी पर तल्आ था। पक्का था। बणी को साफ रखने का ध्यान पूरा गाँव रखता था। बहुयें सज-धज कर, टूम पहन कर तल्आ से पानी लाती थी और साथ में गाँव की बेटियाँ सिर पर घड़ा-टोकणी रखे गीत गाती थी। गर्मियों में तल्आ का पानी समाप्त हो जाता था और तब पीने के पानी की भारी समस्या हो जाती थी। गाँव में बहुत कूये थे पर उनमें पीने का पानी बहुत कम था। रात दो बजे कुओं पर नम्बर लगाने जैसी बात थी।
० गर्मियों में बणी मे जाल्ओं के पील्ए बहुत लगती थी। खेतों-जोहड़ों में जाँडियों के सांगर-खोखे और कैरों के पिन्जू लगते थे।
० गाँव में सिमाणा बदल-बदल कर वर्ष में साढ-सावन में बाजरा-मूंग-मोठ-ग्वार बोते थे। काकड़ी-मतीरे-काचरी इनमें बहुत होते थे। सर्दियों में दूसरे सिमाणे में चने-सरसों बोते थे। मूली घर के लिये।
० पशुओं के लिये साल में कुछ महीने चारे की बहुत दिक्कत होती थी। ताई और माँ सहेलियों तथा बेटियों के साथ बगल के गाँवों तक की सीमा से घास खोद कर डेढ़-दो मन की भरोटी सिर पर लाती थी। अनाज ऊँटों से गाहते थे और हवा नहीं चलने पर खेतों में पैरों में अनाज महीने भी पड़ा रहता था।
० गाँव में लोगों के पास समय था। आदमी हुक्कों पर बैठते थे। आठ-दस इक्ट्ठी हो कर औरतें और लड़कियाँ चरखे कातती, चूनरियों पर गोटे-सितारे जड़ती थी। हँसना-बोलना बहुत होता था।
० ब्याह में ऊँटों पर बरात आती-जाती थी। तीन दिन रुकती थी। इस-उस घर में दो-चार ऊँट ठहराते थे। रोटियाँ मिल कर बनाते। गाँव वाले ही परोसते थे। रिश्तेदारी में सात-आठ दिन रुकना सामान्य था। बच्चों का नाना-मामा के गाँव में रहना होता था।
## इन पचास-पचपन वर्ष में बहुत-कुछ बदला है। पुराना मिट-सा गया है।
कुछ वर्ष पहले गाँव गया था तब तीन दादियाँ सिर पुचकार कर बोली थी : “बेट्टा ! गा गई। हेरण गया। आर बुड्डाँ की इज्जत गई।” परन्तु , ताई को बहुत आदर और प्यार जीवन की अन्तिम साँस तक मिला।
ताईजी ने भरपूर जीवन जीया।